देशी ज्ञान से रोकें पर्यावरण विनाश राजेंद्र सिंह

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प्रख्यात पर्यावरणविद

जब विखंडित शिक्षण होता है तभी आर्थिक लोभ-लालच बढ़कर हिंसक रूप धारण करता है। अतिक्रमण, प्रदूषण, शोषण हमारी हिंसक शिक्षा की ही देन है। अतिक्रमण तो हमारी प्रबंधकीय शिक्षा की प्रमुख देन है। सभी प्रबंधकों को बाकायदा वही पढ़ाया जाता है। संवेदनशील विज्ञान ही हमें आज भी आगे बढ़ा सकता है। इसी रास्ते हम पूरी दुनिया को कुछ नया सिखा सकते हैं। यही आधुनिक दुनिया के प्राकृतिक संकट, जलवायु परिवर्तन का समाधान करने वाला विज्ञान सिद्ध हो सकता है…

आज की प्रचलित प्रौद्योगिकी ने विकास के नाम पर विस्थापन, बिगाड़ और विनाश किया है। प्राचीन काल में संवेदनशील अहिंसक विज्ञान से ही भारत आगे बढ़ा था। प्रौद्योगिकी और अभियांत्रिकी को जब संवेदनशील विज्ञान के साथ समग्रता से जोड़कर रचना और निर्माण होता है, वही विस्थापन, विकृति, विनाश मुक्त स्थायी विकास होता है। इस संपूर्ण प्रक्रिया में सदैव नित्य-नूतन-निर्माण होने से ही सनातन विकास बनता है। हम नई स्थायी तकनीक और विनाश मुक्ति को ही नई अहिंसक प्रौद्योगिकी कह सकते हैं। उसी से आधुनिक वैश्विक जलवायु परिवर्तन के संकट से मुक्ति मिल सकती है। ऐसी प्रौद्योगिकी एवं अभियांत्रिकी का आधार भारतीय ज्ञानतंत्र से ही हो सकता है। भारतीयों का भगवान, ‘भ-भूमि, ग-गगन, व-वायु, अ-अग्नि और न-नीर’ से रचा हुआ माना जाता है। आम लोग नीर-नारी-नदी को नारायण मानते हैं। यही भारतीय आस्था और पर्यावरण है। पर्यावरण विज्ञान संवेदनशील अहिंसक विज्ञान ही है। इसे आध्यात्मिक विज्ञान भी कह सकते हैं। आधुनिक विज्ञान तो केवल गणनाओं और समीकरणों के फेर में फंसकर संवेदना-रहित विज्ञान की निर्मित करता है। भारतीय ज्ञानतंत्र का ज्ञान-विज्ञान अनुभूति में आते-आते संवेदनशील, अहिंसक बन जाता है। इसी से भारतीय आस्था बनती है। आस्था के विज्ञान से ही भारतीय पर्यावरण संरक्षण अभी तक होता रहा है। जब से हमारे विज्ञान की नई शोध से संवेदना और आस्था गायब हुई है, तभी से जलवायु परिवर्तन का संकट और उससे जन्मी हिमालय की आपदाओं का चक्र भी बढ़ गया है।

क्रमबद्ध ‘सत्य’ की खोज ही विज्ञान है। आवश्यकता आविष्कार की जननी तब बनती है, जब खोज करने वाले की संवेदनाएं अपने परिवेश और मानवता के संबंधों को सम्मान देकर उनमें समृद्धि लाने हेतु कोई खोज होती है। समृद्धि केवल मानव हेतु होगी तो प्रकृति और मानवीय रिश्तों में दूरी पैदा करेगी। ऐसी स्थिति में खोज कर्त्ता एटम बम बनाएगा और तीसरा विश्वयुद्ध कराएगा। जब मानवीय संवेदना कायम रहती है तो शोध करके आरोग्य रक्षक आयुर्वेद का चरक बनता है जो जीवन को प्राकृतिक औषधियों से स्वस्थ रहने, ज्यादा जीने और प्राकृतिक संरक्षण के काम करके साझे भविष्य को समृद्ध करने में डूबा रहेगा। वह मानव के स्वास्थ्य में बिगाड़ नहीं करेगा, बल्कि दोनों को स्वस्थ रखने की कामना और सद्भावना अपने शोध द्वारा करेगा। हमारी उक्त समग्र दृष्टि थी।

इसी दृष्टि के कारण हम उतना ही बोलते थे, जितना हम अनुभव करते थे। इसलिए हमारे सभी वेद, उपनिषद ऐसा संदेश देते हैं जैसे कोई अनुभवी व्यक्ति अपनी अभिव्यक्ति कर रहा हो। यह अभिव्यक्ति जरूर उस समय के चंद व्यक्तियों की रही होगी,ऋषि-महर्षि का अनुभव रहा होगा, लेकिन अनुभव से शास्त्र बनते, गढ़े जाते थे। उनकी अगली पीढ़ी उन शास्त्रों का ही पालन करती थी। ये शास्त्र आज के विज्ञान से अलग नहीं थे। वही समय-सिद्ध गहरे अनुभव थे। आज के शास्त्र केवल कल्पना-गणना, क्रिया-प्रतिक्रिया से गढे़ जा रहे हैं। इनमें अनुभव तथा अनुभूति नहीं है। जिसके मन में जो कल्पना बनी, यह बोलने, करने लगता है। इसलिए कल जिस जंगल को काटकर खेती को बढ़ावा देने को क्रांतिकारिता मान रहे थे, देश की जिन बावडि़यों तथा तालाबों के जल को नारू रोग का भंडार मानकर उन्हें पाटने की कोशिश में करोड़ों रुपए खर्च कर रहे थे, आज इन्हीं तौर-तरीकों को संयुक्त राष्ट्र संघ ‘बैस्ट प्रेक्टिस’ (सर्वोत्तम आदतें) कह रहा है। यदि बावड़ी-तालाब को पाटने से पहले केवल एक या दो शोध के बजाय वहां का इतिहास-भूगोल और समाज की जरूरत, उसकी क्षमता को आंकने का लंबा अनुभव किया होता तो इस प्रकार की बिगाड़ की घटना नहीं घटती। बराबरी की प्राकृतिक कामना व सद्भावना का जन्म तो आत्मीय ऊर्जा की संवेदनाओं से होता है, लेकिन एटम बम का जन्म पावर (शक्ति) करती है। शक्ति की इच्छा हेतु शक्ति प्राप्त करने की ही खोज होती है और उसका उपयोग भी हम शक्ति पाने की चाह में ही करते हैं। शक्ति से युद्ध होता है। भारत की प्रकृति की समझ में ऊर्जा थी। वही भारतीय ज्ञान दुनिया को ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ कहकर एक करने वाली ऊर्जा से ओतप्रोत था। तभी तो हमारी ऊर्जा से हम जैसलमेर जैसे कम वर्षा वाले क्षेत्र को पुराने जमाने में ही आज के वाशिंगटन से बड़ा व्यापार केंद्र बना सके थे। लंबे समय तक हम इस रास्ते काबुल, कंधार, कजाकिस्तान, म्यांमार आदि देशों में ऊंटों के द्वारा व्यापार करते रहे। वह ऊर्जा का प्रतीक था। ऊर्जा और शक्ति में आजकल हमने विभेद करना छोड़ दिया। शक्ति को ही ऊर्जा कहने लगे हैं। शक्ति निजी लाभ के रास्ते पर चलती है, ऊर्जा शुभ के साथ रास्ता बनाती है।

इसलिए शक्ति विनाश और ऊर्जा सुरक्षा और समृद्धि प्रदान करती है। मानव व प्राकृतिक हक की समानता ही सत्य है, लेकिन मानवीय बुद्धि में जब अतिक्रमण करने वाली प्रबंधकीय शिक्षा का प्रभाव बढ़ता है, वही प्रकृति के हक पर कब्जा करता है। जब प्रौद्योगिकी और अभियांत्रिकी का कौशल बढ़ता है तो मनुष्य प्रकृति का शोषण शुरू कर देता है। धरती के अंदर से खनन करता है। नदियों की आजादी नष्ट करके उन्हीं का शोषण शुरू कर देता है। शोषण से प्रदूषण शुरू हो जाता है। यह सब जब मानवीय व्यवहार और संस्कार में प्रवेश होता है, तब केवल प्राकृतिक संसाधन धरती, नदी, जल-जंगल, जीवन सभी कुछ शोषण का शिकार होने लगते हैं। शोषण संस्कृति नहीं, सभ्यता बनकर काम करता है। भू-जल भंडारों को उपयोगी बनाने के नाम पर भू-जल भंडारों पर प्रदूषण और अतिक्रमण हो रहा है।

आज सुंदर शब्दों का सृजन ही अतिक्रमण करने के काम आ रहा है। यह मानवीय शक्ति, प्रौद्योगिकी और अभियांत्रिकी द्वारा बढ़ाया जा रहा है। ऊर्जावान लोग अतिक्रमण नहीं करते, वे सदैव नित्य-नूतन आवर्तन निर्माण करते हैं। नित्य नूतन निर्माण में हिंसा नहीं होती है। यह सदैव शक्तिमय अहिंसक सृजन प्रक्रिया है। आज सृजन प्रक्रिया को रोककर पूरे ब्रह्मांड में प्रदूषण बढ़ रहा है। केवल प्राकृतिक प्रदूषण बढ़ा है, ऐसा ही नहीं है। हमारी शिक्षा ने मानवीय सभ्यता और सांस्कृतिक प्रदूषण को भी बुरी तरह बढ़ा दिया है। अतिक्रमण, शोषण, प्रदूषण इन तीनों को हमारी आधुनिक शिक्षा ने ही बढ़ाया है। जब विखंडित शिक्षण होता है तभी आर्थिक लोभ-लालच बढ़कर हिंसक रूप धारण करता है। अतिक्रमण, प्रदूषण, शोषण हमारी हिंसक शिक्षा की ही देन है। अतिक्रमण तो हमारी प्रबंधकीय शिक्षा की प्रमुख देन है। सभी प्रबंधकों को बाकायदा वही पढ़ाया जाता है। संवेदनशील विज्ञान ही हमें आज भी आगे बढ़ा सकता है। इसी रास्ते हम पूरी दुनिया को कुछ नया सिखा सकते हैं। यही आधुनिक दुनिया के प्राकृतिक संकट, जलवायु परिवर्तन का समाधान करने वाला विज्ञान सिद्ध हो सकता है।