ब्रह्मचर्य का पालन

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

प्राध्यापक महोदय का जीवन प्राचीन भारत के ऋषियों की चिंताराशि के प्रति सहानुभूति जाग्रत तथा उसके प्रति लोगों के विरोध एवं घृणा को नष्ट कर श्रद्धा उत्पन्न करने के दीर्घकाल में संपन्न होने वाले कार्य में ही संलग्न था। मैंने उन्हें एक भाषातत्वविद अथवा पंडित के रूप में नहीं देखा, मैंने तो देखा मानों कोई आत्मा दिन-प्रतिदिन ब्रह्म के साथ अपना एकत्व अनुभव कर रही है, मानों कोई हृदय अनंत के साथ एक रूप होने के लिए प्रतिक्षण प्रसारित हो रहा है।

जहां अन्य लोगों ने शुष्क, अप्रयोजनीय विचार रूप मरुभूमि में दिग्भ्रांत हो स्वयं को खो दिया है, वहीं से उन्होंने अमृतस्रोत बहाया है। उनकी हृदय ध्वनि मानो उपनिषद के उस सुर में, उस ताल में ध्वनित हो रही है, जो गंभीर अमृतमयी वाणी की घोषणा कर रही है। एकमात्र आत्मा को ही जान लो और सब बातें त्याग दो।  समग्र जगत को हिला देने वाले पंडित एवं दार्शनिक होने पर भी उनके पांडित्य और दर्शन ने उन्हें उच्च से उच्चतर स्तर की ओर ले जाकर आत्मदर्शन में समर्थ किया है। उनकी अपरा विद्या वास्तव में उनकी पराविद्या लाभ में सहायक हुई है। यही प्रकृत विद्या ज्ञान से ही हमें विनय की प्राप्ति होती है। यदि ज्ञान हमें उस परात्पर के निकट ले जाए, तो फिर ज्ञान की उपयोगिता ही क्या? और फिर उनका भारत पर अनुराग भी कितना है। मेरा अनुराग यदि उसका एक प्रतिशत भी रहता, तो मैं अपने को धन्य समझता।

ये साधारण मनस्वी पचास या उससे भी अधिक वर्ष से भारतीय विचार राज्य में निवास तथा विचरण कर रहे हैं और उन्होंने इतनी श्रद्धा एवं हार्दिक प्रेम के साथ संस्कृत साहित्य की सेवा की है कि अंत में वह उनके हृदय में ही बैठ गया है एवं मानों उनका सर्वांग ही उसमें रंग गया है। मैक्समूलर एक शुद्ध वेदांतिक हैं। सचमुच ही उन्होंने वेदांत के सुर बेसुर, भिन्न-भिन्न भावों के भीतर उसकी प्रकृत तान को पहचाना है, उस वेदांत के जो पृथ्वी के समस्त विचारों एवं संप्रदायों को प्रकाशित करने वाला एकमात्र आलोक है और समस्त धर्म जिसके भिन्न रूप मात्र हैं। और श्री रामकृष्ण देव कौन थे? वे थे इसी प्राचीन तत्त्व के प्रत्यक्ष उदाहरण स्वरूप प्राचीन भारत के ज्वलंत मूर्त स्वरूप, भविष्य भारत के पूर्वाभास स्वरूप एवं समस्त जातियों के समक्ष आध्यात्मिक आलोकवाहक स्वरूप। यह एक मानी हुई बात है कि जौहरी ही रत्नों की परख कर सकता है। अतः यदि इस पाश्चात्य ऋषि ने भारतीय विचार गगन में किसी नए नक्षत्र के उचित होने से इसके पहले कि भारतवासी उसका महत्त्व समझ सकें उसकी ओर आकृष्ट होकर उसकी विशेष पर्यालोचना की हो, तो क्या यह विस्मय की बात है? मैंने उनसे कहा, आप भारत में कब आ रहे हैं? भारतवासियों के पूर्वजों की चिंताराशि को अपने यथार्थ रूप में लोगों के सामने प्रकट किया है। अतः वहां के सभी लोग आपके शुभागमन से आनंदित हो उठेंगे। वृद्ध ऋषि का मुख उज्ज्वल हो उठा। उनके नेत्रों से आंसू जैसे भर आए और नम्रता से सिर हिलाकर उन्होंने धीरे-धीरे कहा, तब तो मैं वापस नहीं आऊंगा, तुम लोगों को मेरा दाह-संस्कार वहीं कर देना होगा। आगे और अधिक प्रश्न करना मुझे मानव हृदय के पवित्र रहस्यपूर्ण राज्य में अनाधिकार प्रवेश करने की चेष्टा की भांति प्रतीत हुआ।