पार्टी के रंग में देश

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक

पार्टी की कढ़ाई में गहरा रंग उबल कर ठंडा हो चुका था और अब नेताओं को इसमें डुबो-डुबो कर यह पता लगाना था कि किस पर कितना चढ़ा है। नेता एक-एक करके आ रहे थे और डुबकी लगा रहे थे। सफेदपोश बने पार्टी अध्यक्ष के सामने नेता रंग-बिरंगे हो रहे थे। जिन पर रंग नहीं चढ़ रहा था, उन्हें अलग से कतारबद्ध किया जा रहा था और देखते ही देखते इनकी पंक्ति लंबी हो गई। पार्टी में चिंता फैल गई कि अधिकांश नेताओं पर रंग क्यों नहीं चढ़ रहा। किसी ने कहा पार्टी के रंग में कोई खोट है। किसी ने कहा कि पार्टी के भीतर से रंग निकल गया है, तो बीच में आवाजें आने लगीं कि अब पार्टी को अपना रंग बदल लेना चाहिए। तरह-तरह की बातें, तरह-तरह के आरोप लग रहे थे। एक पुराने हो चुके कार्यकर्ता ने आजादी वाली हिम्मत दिखाते हुए कहा, ‘श्रीमान इसमें पार्टी रंग का खोट नहीं, लेकिन सत्ता का रंग इतना चढ़ गया है कि कोई दूसरा चढ़ता नहीं।’ बड़े नेताओं को लगा कि बूढ़ा सठिया गया है।

 सत्ता को बदनाम करके कौनसी पार्टी जिंदा रहेगी, बल्कि सत्ता ही तो अब पार्टी है। अब पूरे देश में सत्ता चल रही है, तो पार्टी चल रही है। देश के कितने ही नेता बदरंग हैं, लेकिन जब कभी पार्टी की कढ़ाई में फेंके तो अपने रंग के हो गए। अगर यह रंग तृणमूल कांग्रेस से छीने गए नेताओं पर चढ़ सकता है, तो अपनी शाखा के नेताओं पर इसका असर क्यों नहीं। अंततः पार्टी ने कढ़ाई बदल कर बड़ा बड़ कनस्तर रख लिया। पहला प्रयोग अब दूसरी पार्टियों से छीने नेताओं पर किया गया। यह असरदार हुआ। अब देश भर की सत्ताविहीन पार्टियों के नेता आ रहे थे और उनका रंग चमत्कारिक ढंग से बदल रहा था। किसी न कहा कि सबसे अधिक बदरंग नेता कांग्रेस में हैं, लेकिन हमारा कनस्तर देखते ही रंग बदल लेते हैं। अब सत्तारूढ़ पार्टी अपनी विचारधारा को केवल इसी रंग में देखने लगी और इसलिए देश की राजनीति के लिए यह रंग भरा कनस्तर पवित्र माना जाने लगा। अध्यक्ष महोदय हर चुनाव में यही रंग छिड़क-छिड़क कर धरती पर भी अपना रंग देखने लगे हैं। पार्टी रंग का महत्त्व इनसान के खून के रंग से कहीं बेहतर सिद्ध होने लगा। धरती पर गिरा खून अब दिखाई नहीं देता, लेकिन लाश को पहचानने के लिए अब पार्टी का रंग देखा जा रहा है।

 देश की मौन स्वीकृतियां इसी रंग से जुड़ गईं। कानून-व्यवस्था से न्याय व्यवस्था के रंग में अगर उम्मीद देखनी है, तो पार्टी का रंग देखना पड़ता है। आश्चर्य यह कि पार्टी पूरे देश और देश की संस्थाओं को अपने रंग में रंगने के बावजूद अपने नेताओं को रंगने में असमर्थ हो रही थी। दूसरी पार्टियों के नेता अब अपने जैसे लगने लगे थे, लेकिन अपने रंग से दूर हो रहे थे। पार्टी के लिए देश को रंगना आसान था, लेकिन पार्टी के भीतर अपनों को रंगना क्यों मुश्किल हो रहा है, यह विषय अब पार्टी अध्यक्ष के साथ-साथ सत्ता के मुखिया के लिए भी देश का सबसे बड़ा प्रश्न बन गया। जिस सत्तारूढ़ दल के लिए देश का कोई भी जटिल प्रश्न मायने नहीं रखता था, उसके लिए अपना रंग क्यों धोखा दे रहा था, इस पर नए प्रयोग होने लगे। मंदिरों में पूजा होने लगी। भक्त प्रार्थना करने लगे कि पार्टी का रंग उनमें समा जाए। देश के हर अंश को पार्टी का रंग चाहिए था, इसलिए सोचा गया कि कुछ गिरगिट खोज कर रंगे जाएं। आश्चर्य यह कि जैसे ही गिरगिट रंग में डाले, वे भी सफेदपोश हो गए। अंततः गुपचुप तरीके से पार्टी के अध्यक्ष और सत्ता के मुखिया खुद को राते के अंधेरे में रंगते रहे, लेकिन उन पर भी पुरानी पार्टी का रंग बेअसर हो चुका था। थक-हार कर पार्टी ने अपने रंग के चश्मे बनाने का ठेका अपनी ही सत्ता को दे दिया। देश अब सत्तारूढ़ दल के चश्मे से देख रहा है। सारे समाज को निःशुल्क चश्मे मिल रहे हैं और इस तरह सत्तारूढ़ दल फिर से रंगीन नज़र आ रहा है।