क्या सीखे, कितना सीखे

देश के सवाल लगातार नीचे उतर रहे हैं और आखिर की पंक्ति में खड़े नागरिक से फिर पूछा जा रहा है कि इस हालात के लिए क्यों न उसे ही दोषी मानकर बढ़ते आंकड़ों के पाप धो लिए जाएं। कोरोना लगभग एक साल से सारे देश और नागरिक समाज को सबक दे रहा है, लेकिन फिर वही हालात लौटकर हमारी जिंदगी, हमारी रोजी-रोटी और हमारे वजूद पर भारी पडऩे लगे हैं। फैसलों की खिचड़ी से उड़ती नसीहतों की भाप को देखें या फिर सरकारी आदेशों की नमक हलाली करें, क्योंकि देश में मजबूरियों के ताबूत अभी कम नहीं हुए। हिमाचल के चारों ओर गूंज रहे नाइट कफ्र्यू, लॉकडाउन और बंदिशों के नए पैमानों के बीच कब तक खैर मनाओगे। पिछले एक हफ्ते में पचास फीसदी कोरोना संक्रमण का बढऩा कोई सामान्य घटना नहीं, बल्कि पुन: लाचारी के आलम मेें झूलती जिंदगी के मसले पर, सरकारी असमर्थता का नंगा नाच भी जाहिर होता है।

ऊना में पॉजिटिविटी रेट अगर दिल्ली से कहीं अधिक 25.56 प्रतिशत पहुंचता है या कांगड़ा में एक ही दिन में संक्रमण का आंकड़ा साढ़े पांच सौ की तादाद को छूने की छूट लेता है, तो स्थिति का आकलन फिर से बेडिय़ां चुन रहा है। यानी एक साल की तपस्या और आर्थिक विध्वंस के बाद हमारे जीने की लागत सिर्फ एक पिंजरा है तथा जहां हमें कैद होना है। इस बार नाम बदल सकता है या पूरी तरह लॉकडाउन का संदेश न मिले, लेकिन कब्र और श्मशान में सिर्फ एक परंपरा का ही तो फर्क है। दरअसल कोरोना के समक्ष राष्ट्रीय इंतजाम अब समाज को फिर से स्वास्थ्य की वही परंपरा दे रहे हैं, जहां हिदायतों के बीच मौन स्वीकृतियों के सिवाय कुछ नया नहीं होगा। इस बार थाली-ताली भले ही न बजे, लेकिन अस्पतालों में गिड़गिड़ाने की नौबत तो बरकरार रहेगी। कोरोना काल का साहसिक पक्ष राजनीति ने जीभर के लूटा है और इसे सरकारों ने भी डट के भुनाया है। अब तंत्र पर सरकार के मंत्र फिर विराजित होंगे और हमारे आसपास हैल्थ इन्फ्रास्ट्रक्चर पुनर्जन्म लेगा। सारे देश की तरह हिमाचल भी नई घोषणाओं की संगत में कोरोना को हराने के लिए चाक चौबंद होने लगा है, तो फैसलों की फेहरिस्त में यहां भी चुनावी दंगल नजर आएंगे या तमाम खतरों के बीच उद्घाटन-शिलान्यासों के पत्थर देखे जाएंगे। देश कोरोना के परिप्रेक्ष्य में नई जानकारियों के साथ ऐसी सावधानियां जोड़ लेता है, जिनके प्रति सारी नैतिक जिम्मेदारी आम इनसान की है। इसलिए बिना यह सोचे कि कौन नेता आपको कैसे इस्तेमाल कर रहा है, दिग्गज मेडिकल एक्सपर्ट की मानते हुए मास्क, सेनेटाइजर और दो गज की दूरी बनाए रखें।

 दुर्भाग्यवश एक साल पहले जो नेता आदर्शों के बीज बो रहे थे, उन्होंने सामाजिक बंदिशों की फसल उजाड़ी है। बिना ये सोचे कि चुनावी गणित में नेताओं ने अपने अहंकार के आगे मास्क को कितनी बार प्रताडि़त किया या देश को राजनीति के खेत में ही उगा दिया, लेकिन आम जनता को अपने आदर्शों में जीवन बचाना है। हो सकता है अगली सुबह हमारा भविष्य फिर किसी कफ्र्यू की जद में आ जाए या जिंदगी के खतरनाक मोड़ पर आम नागरिक की इच्छाओं, जरूरतों और रोजगार पर कुंडली मार कर सरकारी आदेश सवार हो जाएं, लेकिन यह युद्ध अपने भीतर की पाबंदियों से भी रहेगा। यह युद्ध आधी भूख का रहेगा, क्योंकि आर्थिक मंदी के बावजूद एकमात्र उपाय पुन: बंदिशों की बाड़ सरीखा है। आम नागरिक को ही यह अरदास करनी है कि चाहे उसके सारे सहारे टूटें, उसे ही कोरोना की लौटती श्रृंखला तोडऩी है। एक बार फिर आसमान जहां टूट रहा है, वहां आम गरीब को अपने आंसू समेटने की हिदायत है। पुन: बेखबर हो जाओ कि अस्पतालों में बिस्तर बढ़ रहे हैं, कितने आक्सीजन प्लांट लग रहे हैं या वेंटिलेटर चुस्त-दुरुस्त हो गए हैं, याद रखें कि आप खुद ही खुद को बचा पाओगे। सरकारों  को अपने वजूद के लिए कोरोना से डर नहीं लगता, लेकिन चुनाव में हारने का भय आतंकित करता है। किसे याद है कि एक साल में कितनी दिहाडिय़ां,कितने रोजगार के अवसर तथा नौकरियां फनां हुईं, लेकिन बढ़त इस बात की रही कि कहीं कोई राजनीतिक पार्टी जीत रही थी या हराने वाले कोरोना से भी भयंकर शक्ति से उत्पात मचा पाए। कोरोना के खिलाफ एकांगी होकर आम समाज को सिर्फ अपनी रक्षा करनी है, न कि मतदाता के अधिकार से प्राप्त रक्षा कवच आपके इर्द-गिर्द खड़ा होगा।