जब मेरी फितरत, फितरत नहीं रह जाती

किताब के संदर्भ में लेखक

साहित्य में अपनी प्रतीति के साथ बद्री सिंह भाटिया ने, जीवन की कहावत को कर्म की शक्ति से ऐसे जोड़ा कि लम्हे लिखते रहे जिंदगी। वह न थके और न हारे, लेकिन अपनी ही किसी कहानी की तरह अमिट छाप छोड़ कर अलविदा कह गए। सूचना एवं जनसंपर्क की दवात से मिली स्याही का भरपूर उपयोग करते हुए उन्होंने प्रदेश के सरोकारों को ऐसे लिखा कि पाठक के लिए सारे संदर्भ सूचनापट्ट की तरह स्पष्ट हो जाते हैं। एक सादगी भरे लेखक की समीक्षा में, उन्हीं के शब्दों से संपर्क साधने की कोशिश पुनः कर रहे हैं। दिव्य हिमाचल के प्रतिबिंब की ओर से नमन आदरांजलि…

दिहिः क्या आईटी के युग में सहज संवाद के बजाय पर्दों में झांकने की तकनीक पर भरोसा मर गया या इंटरनेट के मखमली स्पर्श से विमर्श सो गया है?

बीएस भाटियाःआईटी के प्रभाव से कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रह गया है। प्रतिदिन नई-नई तकनीकें और तरीके आम आदमी और बुद्धिजीवी वर्ग के सामने प्रस्तुत होते हैं जिसका मानवीय सोच और कार्य-व्यवहार पर माकूल प्रभाव पड़ा है। यह सहज भी है। पर्दे पर नित नया परोसा जा रहा है। कहीं हमारे अंतस से मेल खाता या हमारी दमित इच्छाओं की प्रतिपूर्ति करता। हमारे भीतर के आक्रोश का विकल्प बनकर जो कई बार प्रभावान्विति को प्राप्त सामाजिक विघटन में भी मदद करता है। यानी उस तरह से शिक्षित भी कर रहा है। इंटरनेट ने भी सामान्य साक्षर वर्ग तक को छुआ है। गूगल भैया सबकी मदद कर रहा है। अब आदमी पहले की अपेक्षा अकेला नहीं है।

दिहिः सीधे संवाद के अभाव में, तू-तू, मैं-मैं सरीखे आत्म-विवेचन ने कोई झीनी सी दीवार खड़ी कर दी ताकि मानवीय संवेदना भी अपने अहंकार की पहरेदारी में रहे?

बीएस भाटियाःहां सीधे संवाद की स्थिति में कमी आई है। मानवीय संवेदना पर माकूल प्रभाव पड़ा है। स्वार्थपरता ने जीवन में काफी स्थान बना लिया है।

दिहिः रचना को खींचने की मशक्कत में अभिव्यक्ति का आर्तनाद जिस तरह सोशल मीडिया में हो रहा है, उस पर क्या कहेंगे?

बीएस भाटियाःसोशल मीडिया ने मानव मन पर काफी प्रभाव डाला है। विचारवान और विश्लेषणकर्ता भी कई बार परोसी गई सामग्री के लपेटे में आ जाता है। सोशल मीडिया यद्यपि अनेक पहलुओं को छू रहा है, मगर वह समाज में अच्छी ज्ञानवर्द्धक सूचना के साथ विकृति भी अधिक फैला रहा है। कई बार लगता है कि वह अपने निर्धारित मानदंडों को तोड़कर अपनी बाल उच्छृंखलता को ज्यादा दर्शा रहा है। हां, संप्रेषण के लिए मंच अच्छा है। इसका सदुपयोग होना चाहिए।

दिहिः क्या आप ऐसा नहीं समझते कि रचनात्मकता से कहीं आगे निकल कर कुछ साहित्यकार अपना कैनवास बड़ा कर लेते हैं और कमोबेश एक तंत्र की तरह सारी गतिविधियां, साहित्यिक प्रबंधन का कौशल बन जाती हैं?

बीएस भाटियाःहां! यह एक प्रवृत्ति है और मानव की अंतहीन महत्त्वाकांक्षा भी, अगड़े को पिछाड़ने की। परंतु व्यक्तित्व के साथ रचनात्मकता भी उनका आधार होती है। वह कितनी सशक्त है, यह काल निर्धारण करता है। परंतु प्रत्यक्षतः वह अपने प्रबंधन में कामयाब रहता है और आगे भी बढ़ता जाता है। वह जानता है कि तंत्र कहां है व कैसे उसका उपयोग किया जा सकता है।

दिहिः लेखन की किस परिपाटी को शाश्वत ठहराएंगे या सृजन प्रक्रिया में ठहराव और लेखकीय अनुशासनहीनता की वजह से साहित्य तमाम परंपराओं से बाहर, अधिक आधुनिक और सार्वभौमिक होने की कला बनता जा रहा है?

बीएस भाटियाःमानव मन अनेक प्रकार का होता है। उसका एक दायरा होता है, सोच का भी और विचरने का भी। इन्हीं प्रवृत्तियों के दृष्टिगत लेखन भी हो रहा है। प्रतीत होता है कि एक ठहराव/दोहराव सा हो रहा है। मगर यह एक प्रवाहमान प्रक्रिया है। हां, लेखन में अनुशासनहीनता तो होनी ही नहीं चाहिए। साहित्य की तमाम परंपराओं का पालन होना चाहिए। परंतु एक जगह ही ठहर कर यदि रचना हो रही है, तो वह गलत है। परंपराएं समय सापेक्ष होती हैं। बदलती रहती हैं। विकृत मानसिकता के प्रभाव में आकर शाश्वत मूल्यों को चमत्कार या बोल्डनेस के दावे के साथ तोड़ना उचित प्रतीत नहीं होता। सामाजिक और मानवीय मूल्यों की रक्षा करना एक रचनाकार का दायित्व है। लेखन में वर्तमान चुनौतियों के फलस्वरूप आए परिवर्तन और प्रभाव को आत्मसात कर समाज के स्वस्थ निर्माण में अपनी भूमिका निभानी चाहिए।

दिहिः आपकी कहानियों के संप्रेषण में किसी सूचना का साक्ष्य ही पृष्ठभूमि बन जाता है या कोरी नवजात कल्पना के साथ कोई मर्मस्पर्शी घटना अचानक दर्द का घूंघट हटा देती है?

बीएस भाटियाः कहीं न कहीं समाज में घटित अवस्थिति या किसी सामाजिक समस्या पर मनन मेरी कहानियों के वर्ण्य विषय रहे हैं। कोई कचोट या गहरी पीड़ा संवेदना के धरातल पर दस्तक देती है। लंबे समय तक मन को छेड़ती रहती है। तब कभी कोई शब्द अथवा वाक्य सामने आता है। उसके साथ वह पात्र भी और अपने साथ ले आता है एक परिवेश। कहानी बन जाती है। यथार्थ के संप्रेषण के लिए कल्पना का सहारा मददगार होता है। एक यथार्थ के साथ कई संदर्भ जुड़े होते हैं जो रचना को सशक्त बनाते हैं। कुल मिलाकर इतना कि जो समाज से लिया, उसे एक तैयार माल के रूप में उसे ही लौटा दिया। संभवतः यही सब करते भी हैं।

दिहिः अमूमन साहित्यिक वसंत से कहीं दूर जीवन की वसंत या ऋतुओं की इंद्रधनुषी आभा से भी हटकर जो सालता है, उस हकीकत को छूना आपकी फितरत से कितना मेल खाता है?

बीएस भाटियाः हां, यह होता है। जो घटता है, वह भीतर समा जाता है। फिर मैं और घटना एकमेव हो जाते हैं। मेरे कई रूप हो जाते हैं। कभी पुरुष, कभी स्त्री, कभी बच्चा। कभी पुलिस, कभी पटवारी,…और भी जाने क्या-क्या। तब मेरी फितरत, फितरत नहीं रह जाती। एक रचनाकार की कलम और मन में जाने कितने सवाल, समाधान स्वतः आ जाते हैं।

दिहि : कब अकेले या जमघट के विरक्त होते हैं या जीवन के आनंद में व्यथित अनुभूतियों का संग्रहण कर लेते हैं?

बीएस भाटिया ः अनेक बार। पता नहीं चलता। एकाएक जब भावनाओं का तालाब भर जाता है, छलकने लगता है, तो उसके बहाव में कब स्वतः ही एक खाली जगह यानी स्पेस मिल जाता है या निकल जाता है और रचना कागज पर उतर जाती है।

दिहि :  कहानी के निष्कर्षों से आपका संघर्ष और पात्र की रूह में बसे रहने की शर्त में आपके लिए यथार्थ, आदर्श या कल्पना में किसका सहारा लेना पड़ता है?

बीएस भाटिया:  सामाजिक यथार्थ अपने कड़वे अनुभव परोसता है। पात्र की रूह जैसा आपने कहा, काया प्रवेश के साथ अपनी बात, अपना संकट बताती जाती है और एक जगह ठहर जाती है थक कर। एक आवाज, बस इतना ही। मैं रचना को पकड़ कर नहीं रख पाता। न ही पात्र को। तब भाषा भी उसकी होती है और व्याकरण भी। मैं तो निमित मात्र एक माध्यम हूं, अभिव्यक्ति का।

दिहि:  सामाजिक, सांस्कृतिक बिंदुओं में छेद ढूंढना या कहानी के स्रोत को उसके धरातल से मंच पर ले जाना, कब आसान, कब परेशान करता है?

बीएस भाटिया ः न यह कभी आसान रहा, न ही परेशानी हुई। आसान इसलिए कि मेरे पात्र स्वयं किसी न किसी तरीके से प्रत्यक्ष, परोक्ष सामने आते रहे हैं। अपनी कही और तब तक टिके रहे, जब तक उनके साथ रचनात्मक न्याय नहीं हुआ। कागज पर आते ही वे चले जाते हैं। परेशानी इसलिए नहीं कि मैंने उनसे वादा किया, उतना ही जितना कर या निभा सकता था। मैंने न करना सीख लिया है। कुल मिलाकर मैं सायास रचना नहीं करता।

दिहि :  कभी कहानी आपकी सोच से आगे निकली या जिसे आप कैद न कर सके, उस साहित्यिक रचना के शृंगार में आपका कोई अनूठा अनुभव?

बीएस भाटिया: हां, कई बार पात्रों ने मुझे कलम पकड़ एक ओर खींचा है। मैं जो कहना चाहता था अथवा उसने जो आरंभ में बताया था, लिखते समय वह कहीं और ले गया। तब कई बार एक विषय की दो रचनाएं भी बनी हैं। उपन्यास भी। उदाहरण के लिए मेरी कहानी प्रेत संवाद और सालगिरह-एक और सालगिरह-दो, अभी एक और कहानी है ‘बडि़यां डालती औरतें-एक और दो’। लगता है कि कहीं कुछ छूट गया है जो इसे पूर्णतः प्रदान करता है। कविता की तरह दो पक्ष। तब वे लंबी कहानी न रहकर दो अलग विषय बन जाते हैं।

दिहि :  हिमाचली साहित्य में साहित्यकार का निरूपण सही नहीं है या साहित्यिक धरा पर सरकारी छांव में ताप ही नहीं बचा?

बीएस भाटिया : हिमाचली साहित्य एक हवाई शब्द सा है। हिमाचली साहित्यकार तो हो सकता है जो क्षेत्रीयता का भान कराता है। रेणु ने बिहारी साहित्य नहीं लिखा। या दिल्ली के किसी साहित्यकार ने दिल्ली साहित्य नहीं रचा। हिमाचल प्रदेश के रचनाकार अपने परिवेश के अनुसार विभिन्न क्षेत्रीय, आम विषयों पर रचना कर रहे हैं जो मानवीय संवेदना लिए कहीं के भी हो सकते हैं। मनुष्य की पारिवारिक स्थितियां कमोबेश एक सी ही होती हैं। घटना-दुर्घटना भी। तब यह क्षेत्र विशेष साहित्य में परिलक्षित नहीं होती। उसे कहीं भी आत्मसात किया जा सकता है। बहुत से हिंदी में, तो बहुत से हिमाचल की बोलियों में अभिव्यक्त करते हैं। बोलियों का साहित्य आंचलिक और हिमाचल की हिंदी भाषा का साहित्य देश का साहित्य होना अथवा माना जाना चाहिए। इसे इस तरह के नामकरण से छोटा नहीं करना चाहिए। हिंदी के रचनाकारों ने अपनी रचनाओं के प्रस्तुतिकरण से देश में एक अहम जगह बनाई है। साहित्य सरकारी प्रश्रय में कालांतर से पला-बढ़ा है। हिमाचल प्रदेश में शिक्षा विभाग व अकादमी प्रयास कर रहे हैं।

संघर्ष की लंबी गाथा लिखी बद्री सिंह भाटिया ने

ख्याति प्राप्त साहित्यकार बद्री सिंह भाटिया का जन्म जिला सोलन की अर्की तहसील के गांव ग्याणा में चार जुलाई, 1947 को औसत से नीचे एक किसान परिवार में हुआ। इनकी आरंभिक पढ़ाई गांव में ही हुई तथा 1966 में अर्की स्कूल से हायर सेकेंडरी पास कर सरकारी नौकरी की तलाश में शिमला के लिए उन्होंने प्रस्थान किया। जब 11 महीने तक सरकारी नौकरी नहीं मिली, तो दुकानों में कुछ पैसों पर काम कर लिया। 1967 में उन्हें प्रयोगशाला सहायक के रूप में नौकरी मिल गई। बाद के दिनों में उन्होंने ग्रेजुएशन भी की तथा सरकारी नौकरी पाकर क्लर्क बन गए। लेखन का कीड़ा उन्हें बचपन से ही था। उन्होंने 1984 में लोक संपर्क विभाग में जीवन का नया अध्याय शुरू किया।

अढ़ाई साल तक आर्टिकल राइटर और फिर उप संपादक, सहायक संपादक और सेवानिवृत्ति से कुछ समय पहले संपादक का पद मिला। इसके उपरांत खेतीबाड़ी में हाथ बंटाया। इस अवधि में बागीचा भी लगाया जो किसी कारण छह वर्ष बाद आग की भेंट चढ़ गया। इससे पहले 1978 से ग्रामीण स्तर पर समाज सेवा का कार्य आरंभ कर अनेक विकास कार्यों को उनके अंजाम तक पहुंचाया। साहित्यिक यात्रा की बात करें, तो 1981 में कविता संग्रह और फिर पहला कहानी संग्रह ‘ठिठके हुए पल’ प्रकाशित हुआ। इसके उपरांत समय-समय पर पुस्तकें आती रहीं। कहानी और उपन्यास के कथानक कविता को पीछे धकेलते रहे। ‘धूप की ओर’ उनका एक अन्य कहानी संग्रह है। वह जीवन के अंतिम क्षणों तक लेखन में जुटे रहे। गत 24 अप्रैल को उनका निधन हो गया। हिमाचल के साहित्य जगत के लिए यह एक ऐसी क्षति है, जो कभी पूरी नहीं की जा सकेगी।