कांग्रेस में कितने क्षत्रप

कोरोना काल में सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों के बीच भी अकालग्रस्त होने की नौबत है, तो संपूर्ण राजनीति की कंगाली में नेताओं का वर्चस्व जीर्ण-शीर्ण हो रहा है- लबादे उतर रहे हैं। केंद्र में भाजपा की महाशक्ति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की असीमित प्रतिभा व क्षमता का सियासी उल्लेख पार्टी के कई नेताओं की नैया पार करा गया, लेकिन अब कोरोना काल का गणित एक आम आदमी को भी समझ में आ रहा है तो सारे कयास बदल जाएंगे या सभी नेताओं को अपनी-अपनी भूमिका गढ़नी पड़ेगी। जो नेता लीक से हटकर खुद को प्रमाणित करने की ताक में हैं, उनके लिए ही राजनीति रंग बदल रही है। अगले साल के आरंभ और अंत में चुनाव होने हैं, वहां क्षत्रपों की पैमाइश का सबब देखा जाएगा। इसलिए उत्तर प्रदेश में योगी आदित्य नाथ को पहली बार अपने ‘मठ’ और ‘हठ’ से बाहर निकलकर जमीन मापनी पड़ रही है और वह हवाई सर्वेक्षणों में जर्रा-जर्रा माप रहे हैं। सवाल पंजाब में क्षत्रप होने का है तो विवादों की टोह में पूरी कांग्रेस को शीर्षासन करना पड़ रहा है। यही मसला उत्तराखंड में मुख्यमंत्री बदल कर भी भाजपा के लिए आसान नहीं।

बहरहाल केंद्र की सत्ता में बौनी हो चुकी कांग्रेस के पास यह एक समाधान भी है कि फिर से राज्यों की चुनौतियों को देखते हुए नए नेतृत्व का प्रसार करे। हिमाचल में भी इसी आलोक में आगामी विधानसभा चुनावों को देखना होगा। प्रदेश की वर्तमान सत्ता में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के लिए अगला चुनाव निजी क्षमता के आरोहण व वर्तमान कार्यकाल के संबोधन का रहेगा, इसलिए उनके लिए कोरोना काल की इस आपदा में अवसर है, बशर्ते वह शेष बची अवधि पर अपने हस्ताक्षर करने का दायरा बड़ा करें। हिमाचल में भाजपा की दृष्टि से केंद्र से आ रही मदद का रेखांकन जिस तेजी से पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा व केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर के नाम हो रहा है, उसकी तासीर में आगामी विधानसभा चुनाव की तारीख दर्ज है। चुनाव की तैयारी में योगदान का श्रेय पहली बार केवल स्वास्थ्य क्षेत्र की सफलता से नत्थी हो रहा है, अतः यही एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जहां सत्तारूढ़ दल और विशेषकर मुख्यमंत्री को अपनी छाप का सिक्का जमाना है। दूसरी ओर कांग्रेस अपने पुराने इतिहास के जख्म कुरेद रही है।

दरअसल कांगे्रस के भीतर क्षेत्रीय क्षत्रपों की एक परंपरा रही है, जिसे चुनाव पूर्व चुनौती मिलती रही है। इस बार भी कोेरोना काल में अपनी सूखी पड़ी जड़ों को फिर से रोपने की तैयारी में हिमाचल कांग्रेस ने राहत के पैगाम बना कर आरंभिक पहल तो शुरू की, लेकिन अपना ही सिर मुंडवा कर अपने ही ओले इसे घायल करने पर उतारू हो गए। एक पोस्टर में दर्ज आकांक्षा और उसके फटने से उभरी आशंका के बीच का सत्य यही है कि नए क्षत्रपों की एक जमात वीरभद्र सिंह की छत्रछाया को पसंद नहीं। न पोस्टर निर्मल है और न ही इसका फट जाना शांत हवाओं का संकेत है। पार्टी को एकछत्र वीरभद्र नहीं, नए क्षत्रप पर सहमति चाहिए। ऐसे में सवाल बाली या वीरभद्र के वजूद का नहीं, प्रदेश के सियासी रसूख का भी है। कांग्रेस के मौजूदा विधायकों में क्षत्रप बनने की निशानियां, परिस्थितियां और प्रसंग फिर से हाजिरी लगा रहे हैं,तो विपक्ष के प्रदर्शन में नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री के पक्ष में सरकार से हुए मुकाबले देखे जाएंगे। आशा कुमारी का अपना वजन कांग्रेस के भीतर एक ऐसी सहमति का निष्पादन है, जो सरकार बनने की संभावनाओं के मद्देनजर किसी भी बगावत का बिगुल लूट सकता है। कांग्रेस के बीच क्षत्रपों के अपने-अपने ध्रुवीकरण सामने हैं, फिर भी वकालत का अंतिम तर्क आलाकमान का ही रहेगा। प्रदेश की राजनीति में क्षत्रप होना अगर राजपूत होना भी है, तो जीएस बाली, मुकेश अग्निहोत्री या सुधीर शर्मा जैसे नेताओं की मेहनत पर कुंडली मार कर कोई भी बैठ जाएगा और यही कारवां भाजपा में भी शांता कुमार के बाद चिन्हित नहीं हुआ। बहरहाल हिमाचल का अगला चुनाव कांग्रेस के नए क्षत्रप का अवतार देखना चाहेगा, क्योंकि वीरभद्र सिंह का युग अब केवल नए समीकरणों को आशीर्वाद ही दे पाएगा। इसीलिए ऊना से चला त्रिमूर्ति सम्मेलन शिमला आते-आते बहुमुखी हो जाता है। इस फोटोशूट का अर्थ खुद में ऐसी वकालत है, जो किसी पोस्टर तक को चैन से खड़ा नहीं होने देगी और न ही अपने पत्तों को उड़ने देगी।