डलहौजी के नाम में क्या रखा है

कभी खजियार को स्विट्जरलैंड बनाने चले शांता कुमार डलहौजी का नाम बदलवाकर किसी समस्या का समाधान कर रहे हैं या किसी समस्या का विकास कर रहे हैं। आखिर क्यों डलहौजी अब राजनीति की आंख में किरिच पैदा कर रहा है और शांता सरीखे नेता को इतिहास के गड्ढे खोदने पड़ रहे हैं। न इतिहास के कब्जे में भूगोल और न ही भूगोल के कब्जे में इतिहास जिंदा रह सकता है, बल्कि प्रतीक बदलने के वर्तमान दौर और असफलताओं के द्वंद्व में सत्ता कमजोर नजर आती है, तो इबारत और इबादत के झगड़ों की पनाह में ऐसे मुद्दे उछल रहे हैं। इतिहास को दीवारों पर लिखना या किसी चमचमाती होर्डिंग को इतिहास समझ लेना, वर्तमान की संतुष्टि में कुछ अर्जित करना है, तो सुब्रह्मण्यम स्वामी से शांता कुमार तक के नेता अपना नाक ऊंचा कर सकते हैं। पूरे देश की तरह नाम बदलने के बहाने तो हिमाचल में गढ़े जा सकते हैं, फिर 1854 में अस्तित्व  में आए डलहौजी का 167 साल का इतिहास ही क्यों न हो।

 बेशक रविंद्र नाथ टैगोर, नेता जी सुभाष चंद्र बोस या अजीत सिंह के कदमों की आहट उन देवदारों को मालूम होगी, जो आज भी आजादी की हवाओं का गीत सुनाते हैं। भारतीय इतिहास को लिखती विभूतियों का स्मरण और उनकी याद में डलहौजी का स्पर्श चिरस्थायी स्तंभों के मानिंद आज भी गौरव में अपनत्व देखता है। ऐसे में इतिहास को संजोए स्मारक बनने ही चाहिएं, लेकिन शहर के संदूक में नाम परिवर्तन का गूदड़ भरकर हम कौन सी संपत्ति अर्जित करना चाहते हैं। अगर यही सच है तो सर्वप्रथम शिमला को श्यामला बनाते हुए यह गौर फरमाएं कि वहां की आबोहवा में पली ब्रिटिश काल की इमारतों के बिना हमने क्या सिंचित किया है। हिमाचल के जिन शहरों के साथ किसी ब्रिटिश हस्ती का नाम चस्पां है या गंज की आवाज गूंजती है, फिर इन्हें भी हटाना होगा। नूरपुर जैसे नाम या अलहिलाल जैसा छावनी क्षेत्र फिर अपने अर्थ में विषाक्त हैं।

 मकलोडगंज के सिर पर भूत सवार हो, तो इसे भी आजादी की तलवारें धारण करने की मनाही तो नहीं हो सकती, लेकिन शांता कुमार यह बताएं कि क्या अंग्रेजों के लौटने के 74 सालों बाद भी हम कोई एक नया हिल स्टेशन बना पाए। आप कांगड़ा घाटी रेल को अपने इतिहास के पुरुषों से जोड़ दें या रेलवे स्टेशनों के नाम बदल दें, लेकिन इन पटरियों पर अभी भी अंग्रेजी हुकूमत का लोहा मेहनत कर रहा है। ऐसा नहीं है तो आप पठानकोट से मंडी ब्रॉडगेज रेल लाइन के सपने दिखाने के बजाय क्या कर पाए। अगर पौंग बांध में कांगड़ा की कुर्बानियों का दर्द है, तो फिर इसका नामकरण अंग्रेजों के खिलाफ पहली बगावत का बिगुल फूंकने वाले वजीर राम सिंह पठानिया के नाम पर क्यों नहीं हुआ। इसी तरह पालमपुर का नाम मेजर सोमनाथ कर देने के तर्क भी तो पैदा होते हैं। क्या कृषि विश्वविद्यालय या बैजनाथ कालेज का नाम राजनेताओं के साथ जुड़ना भारतीयता या राष्ट्रीयता है। जांबाज तो कई होंगे, फिर पहाड़ी गांधी कांशी राम के नाम पर स्थापित धर्मशाला के लेखक गृह से जब उनका नाम हटाया गया, तो एक स्वतंत्रता सेनानी के खिलाफ आपकी ही सरकार द्वारा पारित आदेश धन्य कैसे हो गया। अगर अतीत को पौंछा लगा देने से ही भारत सोने की चिडि़या हो जाता है, तो हजारों नाम, लाखों इमारतें और करोड़ों लोगों की पहचान मिटा दें, वरना डलहौजी कल किसी और नाम से भी पुकारा जाए तो न वहां के बेरोजगार को नौकरी मिलेगी, न चंबा को आपके द्वारा घोषित सीमेंट प्लांट मिलेगा। अगर आपकी पार्टी नाम परिवर्तन को विकास का शिलालेख बना सकती है, तो हर दीन-दुखी, पिछड़े व अगड़ों के भी नाम बदल कर उन्हें अच्छी जिंदगी का हक दिलाइए, वरना डलहौजी तो किसी दिन अपनी ही मौत इसलिए मर जाएगा, क्योंकि आजादी के बाद जिन्हें सत्ता मिलती रही है, वे तमाम ‘हीरे’ हमें कोयले की खान बना कर ही छोड़ेंगे।