भरमौरी लोकसाहित्य का सांस्कृतिक सौंदर्य

मो.- 9418130860

अतिथि संपादक:  डा. गौतम शर्मा व्यथित

विमर्श के बिंदु

हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -38

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा

-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप

-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे

-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व

-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य

-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन

-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य

-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना

-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग

-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी 38वीं किस्त…

कपिल मेहरा, मो.-9816412261

चंबा जनपद की भरमौर घाटी की सांस्कृतिक विरासत पर कई लेखकों व साहित्यकारों ने अपनी किताबों व पत्र-पत्रिकाओं में नुआला परंपरा, ऐंचली गायन और खिचड़ी-सिड्डू का उल्लेख किया है। जनजातीय क्षेत्र भरमौर अपनी प्राचीन लोक संस्कृति, खानपान और पहरावे के लिए काफी प्रख्यात है। घाटी के लोगों का रहन-सहन सरल और स्वभाव बहुत ही मिलनसार है।

यहां के लोग अपने देवी-देवताओं के पूजन को लेकर भी खासा रुझान रखते हैं और किसी भी शुभ कार्य या विवाह समारोह में सर्वप्रथम अपने देवता की विधिवत आराधना करना कभी नहीं भूलते। नुआला परंपरा इलाके की अहम परंपरा है। यहां पर अपने देवता को भी वही व्यंजन परोसे जाते हैं, जिनका वे स्वयं उपभोग करते हैं। यहां की बोली को गद्दीयाली कहते हैं। इसके साथ ही जन्म-मरण की परंपराएं भी अनोखी हैं। भरमौर के लोगों की वेषभूषा, खानपान, लोक गीत, लोक गाथाओं, देव-पूजन, तंत्र-मंत्र व रीति-रिवाजों का अपना अलग की महत्त्व है। स्थानीय लोकसाहित्य में इनका अपना अलग ही स्थान है। यहां के मंदिरों खासकर चौरासी मंदिर, छतराड़ी मंदिर में लकड़ी पर की गई नक्काशी प्राचीन कला को उजागर करती है। यहां हर साल होने वाली मणिमहेश व छतराड़ी यात्रा पर कई वृत्तांत प्रकाशित हुए हैं और लेखकों व साहित्यकारों की कलम ने घाटी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को भी अपने पन्नों में जगह दी है। अगर हम नुआला परंपरा की बात करें तो यह विशेषकर गद्दी समुदाय से जुड़ी एक प्राचीन परंपरा है जिसे आज भी चंबा घाटी के लोग पूरी श्रद्धा के साथ निभाते हैं।

यूं तो इस संदर्भ में कई दंतकथाएं प्रचलित हैं, लेकिन चंबा घाटी के लोगों से बातचीत करने पर उन्होंने नुआले के संदर्भ में अपने कई विचार प्रकट किए। नुआला मतलब नौ व्यक्तियों द्वारा भगवान भोले शंकर की स्तुति या भोले की महिमा का गुणगान करना होता है, जिसे केवल गद्दी समुदाय के लोग ही गाते हैं। बताया जाता है कि इन 9 व्यक्तियों को अलग-अलग कार्यभार सौंपा गया होता है। इनमें शामिल 4 लोगों को बंदे कहा जाता है, जो पूरी रात भोलेनाथ की स्तुति या उनकी महिमा का गुणगान करते हैं। इनके साथ पांचवां व्यक्ति कुटआल़ और छठा बुटआल़ होता है।

कुटआल़ का काम सारी रात जागकर शिव का गुणगान करने वाले 4 बंदों की सेवा करना होता है और बुटआल़ का काम लोगों में प्रसाद आदि बांटना होता है। शिव की आराधना ऐंचल़ी से शुरू की जाती है। एक ऐंचल़ी के कुछ बोल इस प्रकार हैं:  ‘आ सामिया, लै वो समीया लै वो सामी अपणे उधारो/भोले़आ वो सामिया। 32 वो कोठे तेरा मंडल़ साजे, लै वो सामी अपणे उधारो/भोले़आ वो सामिया।’ नुआले़ के दौरान रामायण भी गाकर सुनाई जाती है, जिसके बोल कुछ इस प्रकार हैं ः ‘राम ते लछमण चौपण खेले/सिया राणी कडदी कसीदे रामा।’ इसके साथ ही घाटी में धुड़ू नच्चेया गीत भी काफी प्रसिद्ध है, जिसे लोगों को अपने कामकाज के दौरान खेत-खलिहानों में गाते सुना जा सकता है।

इसके बोल इस प्रकार हैं:  ‘धुड़ु नच्चैआ, जटा वो खलारी ओए धुड़ु नच्चैआ, जटा वो खलारी ओए।’ भरमौरी गानों पर कुछ हिमाचली गायकों ने अपनी सीडीज व कैसेट्स भी निकाली हैं। इन्हें लोग अक्सर घरों में सुनते हैं। घाटी के लोग जलधार स्वामी, केलंग बजीर, बुहारी देव, भरमाणी माता, बन्नी माता, चैरासी देव, मणिमहेश यात्रा में काफी आस्था रखते हैं। घाटी के लोगों का प्रसिद्ध व्यंजन सिड्डू है जिसे मक्की के आटे से बनाया जाता है और कढ़ी या लस्सी के साथ इसे परोसा जाता है।

कुछ लोग इसे राजमाह या अन्य दालों के साथ भी खाते हैं। यहां तक कि घर में किसी भी आयोजन पर धाम में भी सिड्डू परोसने की परंपरा आज भी कई लोग निभाते हैं। सिड्डू एक सात्विक आहार है और सेहत के लिए भी गुणकारी माना गया है। इसी के साथ घाटी में खिचड़ी बनाने और परोसने का तरीका भी अलग ही है।

यहां के लोग राजमाह या उड़द की दाल और चावल की खिचड़ी बनाते हैं, जिसे देसी घी या दही के साथ खाया जाता है। अगर पहरावे की बात करें तो टोपी, चोला और डोरा गद्दी समुदाय का मुख्य पहरावा है। महिलाएं लुआंचड़ी के साथ डोरा पहनती हैं। कुछ लोग इसे नुआचड़ी भी कहते हैं। लेकिन समय के बदलाव के कारण अब यह पहरावा केवल विशेष अवसरों पर ही पहना जाता है। महिलाओं के शृंगार में लुआंचड़ी-डोरा, चंद्रहार, बाली, टिक्का, चैंक, गोजरू, मंगलसूत्र, टोके की भूमिका अहम होती है। यहां की नाटी भी अपना अलग स्थान रखती है। घेरे में दाएं-बाएं आधा घूमकर घंटों नाचना इन नाटियों-नृत्यों का सौंदर्य है जिनके नाम हैं घुरैई, लाहुली, डंडारस और धमाल। यहां के लोकसाहित्य और लोक संस्कृति पर शोध एवं अध्ययन की व्यापक संभावनाएं हैं।