गीता रहस्य

स्वामी रामस्वरूप

श्रीकृष्ण गीता के कई श्लोकों में स्वयं को ब्रह्मवस्था में ईश्वर कह रहे हैं। फलस्वरूप ही अर्जुन भक्ति प्रेम में मग्न होकर श्रीकृष्ण महाराज के वचनों को ही कह रहे हैं कि हे कृष्ण मैं आपकी बात को मानता हूं। पुनः श्लोक 10/12 में आगे अर्जुन श्रीकृष्ण महाराज को कह रहे हैं कि हे कृष्ण आप परम ब्रह्म हो…

गतांक से आगे…

श्रीकृष्ण महाराज बार-बार स्वयं को ईश्वर कहते आए हैं जिसका भेद पहले के श्लोकों में समझा दिया गया, तो फलस्परूप ही अर्जुन के हृदय में यह संस्कार बैठ गया कि श्रीकृष्ण महाराज ईश्वर स्वरूप हैं।  यही कारण है कि श्लोक 10/14 में अर्जन कह रहे हैं कि हे कृष्ण ! जो यह सब आप कह रहे हैं कि आप ईश्वर हो, मैं सत्य मानता हूं। वस्तुतः हे कृष्ण आपके स्वरूप को देवता और दानव कोई नहीं जानते और श्लोक 15 में कह दिया कि हे कृष्ण तुम स्वयं ही अपने आपसे अपने आपको मानते हो, अन्य कोई नहीं जानता कि तुम ईश्वर हो।  श्लोक 12 यह सिद्ध कर रहा है कि श्रीकृष्ण महाराज के कहे हुए वचनों द्वारा ही अर्जुन ने देहधारी श्रीकृष्ण महाराज की स्तुति की है, श्रीकृष्ण महाराज को ईश्वर नहीं कहा है। अर्जुन को श्रीकृष्ण महाराज ने श्लोक 13/15 में भी समझाया है कि परमेश्वर सब प्राणियों के बाहर एवं भीतर है जबकि श्रीकृष्ण महाराज देहधारी हैं। श्रीकृष्ण गीता के कई श्लोकों में स्वयं को ब्रह्मवस्था में ईश्वर कह रहे हैं। फलस्वरूप ही अर्जुन भक्ति प्रेम में मग्न होकर श्रीकृष्ण महाराज के वचनों को ही कह रहे हैं कि हे कृष्ण मैं आपकी बात को मानता हूं। पुनः श्लोक 10/12 में आगे अर्जुन श्रीकृष्ण महाराज को कह रहे हैं कि हे कृष्ण आप परम ब्रह्म हो। वस्तुतः निराकार ईश्वर परम ब्रह्म है ऋग्वेद मंत्र 1/22/20 में यह सत्य इस प्रकार कहा है (विष्णोः) सर्वव्यापक परमेश्वर का (परमम्) सबसे उत्तम (पद्म)  पद जो है (तत) उसको (सदा) सब काल में (सूरयः) विद्वान लोग (पश्यंति) देखते हैं।

आगे कहा परम धाम यजुर्वेद मंत्र 12/10 में कहा (यत्र) जिस तृतीये तीसरे जीव व प्रकृति से  अलग तीसरा तत्त्व परमात्मा है यहां (अमृतम्) दुःख रहित मोक्ष सुख है उसको (आनशानः) प्राप्त करने के लिए (देवाः) वेदों के ज्ञात विद्वान (अध्यैरयंत) सर्वत्र अपनी इच्छा से विचरण करते हैं। अतः इस वेदमंत्र में धामन का अर्थ ही परमात्मा है।  भाव यह है कि जीव का सबसे उत्तम धाम परमात्मा ही है। आगे कहा परम पवित्र है। यजुर्वेद मंत्र में भी निराकार ब्रह्म को (शुद्वम अपापविद्धम) कहा है अर्थात निराकार ब्रह्म परम पवित्र और पाप से परे है। आगे कहा शाश्वतम दिव्यम पुरुषम अर्थात आप अनादि दिव्य पुरुष हो। स्वयंभू को ही शाश्वत/अनादि निराकार, पूर्ण परमेश्वर अर्थात सर्वशक्तिमान परमेश्वर जिसमें कहीं से भी किसी प्रकार की कोई कमी नहीं है।