पुस्तक समीक्षा : सामान्य पंक्तियों से अलग ‘जीवन सारांश

जीवन के बिंदुओं में तराशना कितना गहरा और पेचीदा है, इसी की जटिलताओं में अभिव्यक्त होता है। कलात्मक या आध्यात्मिक दृष्टि से जीवन की अभिव्यक्ति को रेखाओं, शब्दों या मालाओं में गूंथना, अनेकार्थकता को जन्म देता है। कुछ इसी तरह विचारों के द्वंद्व से बाहर निकलने की कोशिश सुधीर कायस्था भी अपनी पुस्तक ‘जीवन सारांश के माध्यम से कर रहे हैं। किताब की भूमिका में ही प्रश्न अपनी खोज की तरफ इशारा कर रहे हैं। लेखक खुद से धर्मयुद्ध कर रहा है या देश के अखाड़ों में घुसपैठ करते हुए अपनी अदालत खड़ी कर देता है, ‘कहीं शंखनाद, कहीं घंटाल, बजा उसे रिझाते रहे। ध्यान उसका नहीं किया, व्यर्थ ही चिल्लाते रहे। जीवन सारांश में जीवन के 45 बिंदु चुने हैं। लेखक अपने बहाव को किसी बंधन में नहीं रखता, इसलिए रचनाएं अपनी काव्यात्मकता को हर तरह की कसौटी से बाहर रखती हैं। कहीं जीवन के सरल मुहावरे, तो कहीं निष्कर्ष। कहीं सद्भावना, तो कहीं समाज से शिकायत। धर्म की कंदराओं में भटकते मनुष्य की स्थिति में कुछ यूं भी लिखा जा सकता है, ‘न ये जाति न ही धर्म, एक, बस एक, मानवता।

मेरा पहला कदम, उठे हर कदम। पुस्तक अपने भीतर आजाद भारत के बीच विकसित होते समाज और समाज से निकलते राजनीतिक तंत्र का पीछा करती है तथा आरक्षण जैसे विषयों पर मुखर हो जाती है, ‘आरक्षण एक राजनीतिक पहलू, न कि समाधान। समानता और संरक्षण, बने अगर सामाजिक दायित्व, करे जन जन कल्याण, हो मानवता महान। सुधीर कायस्था विषयों का कैनवास बड़ा करते हुए अपनी धारा में बहते हैं, तो परिवेश से रूबरू होता उनका चरित्र झलकता है। वन संरक्षण पर, ‘शाख ये बोली चमन की। रुक जाओ, ठहर जाओ अभी, शृंगार मुझे करने दो। सूरज की लालिमा से, मांग अपनी भरने दो। शाख ये बोली चमन की.. या मानवता पर लिखते हुए लेखक सामान्य पंक्तियों से अलग खड़ा हो जाता है, ‘न रंग है, न रूप है, मानवता एक स्वरूप है। बनता संवरता आसमान में, इंद्रधनुष सा। कुदरत का कोई करिश्मा है या वरदान है। सृष्टि के अनेक रंगों के सामने लेखक जीवन की उधेड़बुन से संबोधन खड़े करता है, परिवेश से मुलाकात और सामाजिक व राष्ट्रीय प्रश्नों के चक्रव्यूह को महसूस करता हुआ, सादगी से बहुत कुछ कह देता है। विजड़म वड्र्स पब्लिशिंग, जयपुर से प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य 150 रुपए है।                                                                                                                                                          -राजेंद्र ठाकुर