जिला कुल्लू का अल्पज्ञात दलांगी साहित्य

डा. संगीता सारस्वत,  मो.-9459069136

हिमाचल प्रदेश में, प्रकृति के इस सुंदर पालने में जहां एक ओर कुल्लू के साथ लगता किन्नौर जिला है, वहीं दूसरी ओर लाहुल-स्पीति का जिला भी है। नैसर्गिक सौंदर्य से युक्त ये दोनों जिले अपनी पुरातन आंचलिक विशेषताओं तथा सामाजिक, नैतिक, सांस्कृतिक एवं स्थानीय समृद्धियों से भरे जिज्ञासाओं के भूखंड भी हैं जिसका एक अंग है- दलांग। दलांग लोकसाहित्य में, सरलचित मानव हृदय के सहस्रों भावों को अभिव्यक्ति मिली है।

यहां की लोकधारा के काव्य में, लोकजन एवं लोकजननी ने अपने सुख तथा दुख का सृजन भी किया और सिसक-सिसक कर उसके अमृताणु को स्वयं ही पिया भी और उन्हीं भावों को अमृतोदक के समान सहेज कर रखा भी। आज वही भावांजलि, समय-समय पर भावुकता के स्रोत से फूट-फूट कर उच्छलित होती है और खोजी साहित्य प्रेमी उसका पीयूणवरि पीते रहते हैं। 20-25 किलोमीटर के दायरे में फैले इस दलांग क्षेत्र के लोक गीतों में जो भावभीनी भावुक वेदना निहित है, वैसी मार्मिकता भरी संवेदना बहुत विरल ही दिखाई पड़ती है।

यूं लिखने को कुछ भी लिख देना और कहने भर को कुछ भी कह देना आसान है, परंतु उसकी सार्थकता प्रतिहित करना आसान नहीं है। यहां की नारी की सोच, चिंतन दृष्टि, भावुकता तथा सहजता देखने योग्य है। दलांगी शब्द का अर्थ है किसी दल का अंग अथवा हिस्सा। दलांगी साहित्य के गीत दो गायक दो टोलियों में बांट कर गाते हैं। गीत का प्रारंभ एक महिला गायिका द्वारा किया जाता है और टेक के बाद शेष सहयोगी महिलाएं उसका साथ देती हैं। इस प्रकार कभी एक तो कभी अन्य महिलाएं उसका अंग हो जाती हैं और पूरे गीत को गति और लय मिल जाती है। दलांगी साहित्य केवल महिलाओं द्वारा ही गाए जाने वाले गीत हैं। ये गीत मूलतः विरहड़े अथवा विरह गीत हैं। इनके पात्र चाहे वियुक्त पति-पत्नी हों या कोई मां, बहन अथवा पुत्री हो, इन गीतों में व्यक्त भाव मानवीय संवेदनाओं के किसी न किसी रूप को दर्शाते हैं। यह आवश्यक नहीं कि किसी भारतीय मर्यादा या शालीनता के तहत वह नारी कुलीन है या कुलटा। जैसे-जैसे पात्र इस समाज में हैं, वैसे-वैसे पात्र इसके लोकसाहित्य या गीतों में उपलब्ध हैं। इस दृष्टि से भावुक होते हुए भी ये गीत यथार्थवादी हैं। किसी ज्ञानी पुरुष ने इसमें कोई छेड़छाड़ नहीं की है।

इन गीतों में नारी के वीरांगना, स्नेहमयी अपार वात्सल्यमयी माता, निपूती डाह भरी मां, विधवा, प्रेमिका, कड़क सास, परित्यक्ता नारी एवं तरह-तरह के चरित्र निभाती सभी तरह की नारियां हैं। समाज में इच्छानुसार जीवन यापन करने वाली नारी जो मर्यादाओं में बंधी नहीं थी, उस पर कुछ पंक्तियां देखिए- ‘ने लांही, वाहे केरे धागड़ू, सिरे ने लांदी सिंउदी, नै लांदी माथे केरी बींदली।’ अर्थात तू अच्छी विवाहिता है जिसने अपने ऊपर सुहागिन के न तो गले में माला पहनी है, न ही हाथ में कोई कंगन और न ही माथे पर सिंदूर की बिंदी ही लगाई है।

दलांगी साहित्य में किन्हीं बड़ी घटनाओं, प्रसंगों तथा किसी बड़ी ऐतिहासिकता का जिक्र नहीं है, किंतु इन लोक गीतों में निष्ठुर प्रेम, प्रेमिका, देवर-भाभी, साली-सलहज, निकट के संबंधियों का वर्णन है जिसमें उनकी चतुराई, ढिलाई तथा प्रेम का भी चित्रण है। कुछ विप्रलम्भ भावों के गीत, सौतिया डाह अथवा कुब्जा से ईर्ष्या की भावना के गीत अवश्य हैं। ग्रामांजलि इन गीतों में अनपढ़ता, व्यवहार माधुर्य, भाषा की व्यावहारिकता, छंदों के बदले भावों और गेयता की प्रमुखता विद्यमान है। लयात्मकता, भावों-संवेगों के साथ आत्मीयता का पुट अधिक है। ये गीत शब्द सौंदर्य के बदले, अर्थ घनत्व और सौंदर्य के अनूठे मूल्यों के उदाहरण हैं। इनमें सहजता और प्रभावोत्पादकता भी प्रचुर मात्रा में है जो लेखक-लेखिका के हृदय की सहजता को प्रकट करते हैं। दलांगी लोक गीत का एक पठनीय पद्य द्रष्टव्य है।

इसमें राजा दशरथ द्वारा कैकेयी को दिए गए वचन, राम को वनवास, भरत को राज्य देने का मार्मिक चित्रण है : ‘दशरथै एक गुंठलू बानो/गुंठलू कैकेई मुके दसे/दशरथ एक बचना हारो/रामा को राज भरता लै दीनो/कैकेई मुझे बुरा न बोल/रामा को राजा भरता लै दीनो/जैसे धनु कारा प्रत्यंच वीसा/तैसे सीया सुनी राम बिना।’ ऐसे साहित्य के संरक्षण की आवश्यकता है।