आप ठीक-ठाक हैं न जनाब?

पहले जूते और चेहरे पालिश किए जाते थे, कि आदमी अपने दबदबे के दोबाला हो जाने का एहसास करवा सके। अब तो भाई जान, बाज़ार में बिकती सब्ज़ी से लेकर फल-फूल तक चमका कर, उनको पालिश और दवाओं के इंजैक्शन तक लगा कर बेचे जाते हैं ताकि उनके बढि़या होने के प्रति ग्राहक आश्वस्त हो सके। दुगने दाम उसे खरीद कर ले जाएं और घर में आए मेहमानों को पेश करते हुए कहें, ‘जनाब यह फल नहीं तोहफे हैं, अभी काबुल-कंधार से मंगवाए हैं, सिर्फ आपके लिए।’ उन्हें भई यह बड़े आदमियों का दस्तरखान है। यहां बैठ कर जीमने का मौका मिल गया। अहोभाग्य। चाहे घर पहुंचते अपना पेट पकड़ कर वे धाराशायी हो जाएं। तो भी इसका दोषी बड़े लोगों का दस्तरखान नहीं, उनके घर का कूड़ा-कर्कट और प्रदूषण होगा, जो ‘स्वच्छ भारत के ज़ोरदार नारों के बीच’ उनकी देहरी छोड़ कर नहीं गया। चुनाव के दिनं में नेता लोग उनके चौराहे तक आए थे। हाथ में झाड़ू और बगल में प्रैस मीडिया का जुगाड़ करके। नेता जी और उनके चगलगीरों ने नारों भरे उत्साह के साथ उनका चौराहा साफ किया था। फिर मतदान हो गया। नेताजी सत्ता के हवाई मीनार में बैठे गए।

उनका चौराहा कूड़े का बन गया। बरसात आई तो सड़क के गड्ढे छप्पड़ बने। इन छप्पड़ों से डेंगू का लारवा उन्हें गुड मार्निग कहता है। भाई जान पेट पकड़ कर बैठे हैं। उबकाइयां धनिक प्रसादों की उच्छिष्ट की कृपा से नहीं, डेंगू के लारवे की बदमिज़ाजी की वजह से है। मानने पर वायदा मिल गया, इस महामारी के आमद की राह में विंध्याचल खड़े कर देंगे। जल्द से जल्द प्रभावित इलाकों में फागिंग करवा दी जाएगी। दिक्कत यही है कि फागिंग की दवा अभी खत्म हो गई। इसकी नई खेप के लिए खरीद हुक्म मिल गया है। टैंडर काल कर लिए हैं। दवा आ जाएगी तो फागिंग करवाने में देर न होगी। फिलहाल आप यह क्यों नहीं करते कि डेंगू के लिए अपने प्लेटलैट्स चैक करवा लीजिए।

 सामान्य से कम हुए तो डरिए नहीं, अब इन्हें ऊंचा करने के लिए बहुत-सी दवाएं काले बाज़ार में आ गई हैं। बस थोड़ी-सी जेब ढीली कीजिए, सब ठीक हो जाएगा। जी हां, चिकित्सा क्रांति तो देश में हो चुकी है। आखिर इस चिकित्सा और शिक्षा क्रांति के लिए ही तो आपने पिछले डेढ़ दशक से अपने आय कर के साथ उपकर चुकाया है। लेकिन जैसे शिक्षा क्रांति के लिए हमने अंतरिक्ष में एजुसैट उपग्रह स्थापित कर दिया, उन लाखों सरकारी ग्रामीण और शहरी स्कूलों के लिए जहां एजुसैट के यह सिग्नल पछाड़ कर गिरते हैं, क्योंकि इनमें से अधिकतर स्कूलों के पास कम्प्यूटर तो क्या, बच्चों के पढ़ने की किताबें नहीं, सर पर इमारत की छत नहीं और एक ही अध्यापक एक समय में पांच-पांच क्लासें पढ़ा लेता है कि जैसे जलतरंग बजा रहा हो। आपको पता तो है, सरकार का खजाना पिछली सरकार खाली कर गई थी, अभी तक भरा नहीं जा सका। अध्यापक कहां से भर्ती कर लें?

 इसलिए फिलहाल बीएड कालेजों में छात्र दाखिला बंद कर दिया है। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। इसकी जगह बीएड का साल का एकीकृत कोर्स शुरू कर दिया है। चार साल के लिए तो असामियां भरने का संकट टल गया। तब तक अगली सरकार समस्या का हल निकाल लेगी। फिलहाल आप जनप्रतिनिधियों के वेतन और भत्ते संशोधित कर दीजिए। आप भी अजब किस्सागो हैं, भाईजान। बात धनिक प्रसाद की मेज़ का असाध खाने से चली। आपने पेट पकड़ा तो डेंगू का संकट बताने लगे। उपचार के लिए पूछा तो उसे बीमार स्कूलों की ओर ले चले, जहां शिक्षा क्रांति के नाम ब्लैकबोर्ड अभियान औंधे मुंह पड़ा है।

सुरेश सेठ

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