गीता रहस्य

स्वामी रामस्वरूप

श्लोक 17 में भ्रमित हुए अर्जुन ने योगेश्वर श्रीकृष्ण महाराज से यह प्रश्न कर दिया कि ‘हे कृष्ण! मैं तुमको सदा चिंतन करता हुआ कैसे जानूं? अर्थात मैं तुम्हारे किन-किन गुणों का धारणा, ध्यान आदि में बैठकर चिंतन करूं, जिससे मैं तुम्हारे इन गुणों को जान जाऊं…

गतांक से आगे…

श्लोक 10/4, 10/5 में कहा कि बुद्धि तत्त्व, ज्ञान, अहिंसा, संतोष आदि सब परमात्मा की सर्वव्यापकता एवं उसके निमित्त कारण अर्थात परमात्मा के शरीर में निवास करने एवं कर्मफल देने के कारण होता है। 10/17 में सिद्ध किया कि जो ईश्वर की विभूति (दिव्य स्वरूप की स्तुति करता है) और अष्टांग योग को जानता है, उसका अभ्यास करता है, वह ईश्वर से जुड़ता है। 10/18 में कहा कि ईश्वर सबका उत्पत्ति स्थान (निमित्त-उपादान कारण) है। तथा जो परमेश्वर में चित्त, प्राण आदि अर्पित करते हैं और उसकी वेदानुसार स्तुति करते हैं, वह संतोष को प्राप्त करते हैं, परमात्मा में रमण करते हैं इत्यादि।  अतः यदि हम 7वें अध्याय के श्लोक 7 से 10 तक वेदों के अनुसार गहन अध्ययन करें तो यह स्पष्ट होगा कि यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार का कठोर अभ्यास करने के पश्चात धारणा और ध्यान सिद्ध करना होता है, इसके पश्चात ही कोई योगी धर्ममेध समाधि प्राप्त करके ईश्वर की अनुभूति करता है। योग शास्त्र सूत्र 3/1 में कहा ‘देशबंधश्चित्तस्य धारणा’ अर्थात अपने शरीर के किसी स्थान पर ही चित्त की वृत्ति एकाग्र करके गायत्री मंत्र जैसे वेेद मंत्रों के अर्थ का चिंतन करना चाहिए। श्लोक 17 में भ्रमित हुए अर्जुन ने योगेश्वर श्रीकृष्ण महाराज से यह प्रश्न कर दिया कि ‘हे कृष्ण! मैं तुमको सदा चिंतन करता हुआ कैसे जानूं? अर्थात मैं तुम्हारे किन-किन गुणों का धारणा, ध्यान आदि में बैठकर चिंतन करूं, जिससे मैं तुम्हारे इन गुणों को जान जाऊं क्योंकि प्रत्यक्ष में तो अर्जुन श्रीकृष्ण महाराज को जान ही रहे हैं कि वह शरीरधारी हैं, परंतु अर्जुन यह पुछ रहा है कि मैं कैसे जानूं कि तुम अजन्मा, सर्वव्यापक, अनादि, सृष्टि रचयिता आदि गुणांे से  युक्त हो। दूसरा प्रश्न यह किया कि ‘हे भगवन! किन-किन भावों में तुम मेरे चिंतन करने योग्य हो। अर्थात एक तो हे कृष्ण! आप साक्षात मेरे सम्मुख खड़े हो, इस भाव का चिंतन करूं।