निरंकार के साथ नाता

बाबा हरदेव

गतांक से आगे…

गुरमुख महापुरुष जहां बीच में आ जाता है, वहीं पर शीतलता हो जाती है। आगे इस अग्नि को बढ़ने के लिए कोई रास्ता ही नहीं मिलता। शायद इसलिए संसार के लोग महापुरुषों को अपने रास्ते की रुकावट मानते हैं।  वो मानते हैं कि ये प्रेम की मानवता की बातें करते हैं,ये भाई-भाई को अपनाने की बात करते हैं, लेकिन हमने जाति का सहारा लेकर जो सत्ता हथियानी है, हमें वोट या कुर्सी हासिल कर लेनी है, तो अब ये कैसे होगा? हमने गांव की प्रधानगी तो जाति के सहारे पर लेनी है या धर्म के नाम लेनी है। ये तो हरेक को समान दृष्टि से देखते हैं, हर एक को यही बताते हैं, कि सारे मानव प्रभु के बंदे हैं, ये तो हमारे रास्ते में रुकावट है। इसलिए संसार में महापुरुषों के साथ वैर, ईर्ष्या, नफरत होती रही है, लेकिन संत फिर भी अपना स्वभाव नहीं छोड़ते हैं। जिस तरह भले ही सांप लिपटा हो, चंदन का पेड़ अपनी महक देता ही रहता है।  इसी तरह से कोई गंगा किनारे खड़ा हो और बड़े गुस्से और जोर-जोर से बड़े-बड़े पत्थर उस गंगा की तरफ, पानी की तरफ, फेंकने शुरू कर दे, तो जो पानी में पत्थर फेंक रहा है, गंगा का जल क्या उसके लिए नहीं? वो फिर भी जल दिए जा रही है?

हर एक की प्यास, हर एक की मैल फिर से मिटाती जा रही है। संतों का जीवन भी ऐसा ही होता है। साधसंगत कहने का भाव, गुरमुख, महापुरुष, संतों के पास शीतलता होती है। संत अपना संतों वाला स्वभाव नहीं छोड़ते,चाहे करोड़ों असंत क्यों न मिल जाएं। क्योंकि ऐसे स्वभाव से ही शांति प्राप्त होती है। ऐसे गुणों से ही मन में चैन रहता है। ऐसे गुणों से संसार के जो पापी हैं, उनका भी पार उतारा हो सकता है, उनका भी उद्धार हो सकता है। आप महापुरुष धन्य हैं, जिन्होंने इस मालिक, इस निरंकार के साथ नाता जोड़ा है। तभी तो ऐसे गुणों का जीवन में प्रवेश हुआ है। जब तक परमात्मा के साथ नाता नहीं जुड़ा था, तब तक हम अपने मनों को खोज लें, कि क्या जबसे हमने इस प्रभु की प्राप्ति की, गुरमुख, महापुरुषों की संगति हुई, तब के और पहले के जीवन में अंतर नहीं आया है? क्या इसमें कोई फर्क मालूम नहीं पड़ा? पहले हमारी दृष्टि कितनी तंग हुआ करती थी और हम किस तरह संकीर्ण दायरों से बंधे हुए थे? आज वे दायरे टूट चुके हैं, आज हम हर एक का भला चाहते हैं। हर एक का भला करते हैं। गुरमुख महापुरुषों के साथ नाता जोड़कर, इस ईश्वर निरंकार की प्राप्ति करके, निरंतर दास बन के ही जीवन में तबदीली आ जाया करती है। महापुरुष खंडन-मंुडन और वाद-विवाद से बच कर रहते हैं।  ये तर्क या दलील भी दूसरे महापुरुषों के समान अकसर नहीं देते। जैसे एक इनसान बैठा हुआ सफर कर रहा था।