अफगान पर दिल्ली डायलॉग

भारत के लिए उन खतरों के विकल्प ढूंढना आसान नहीं हैं, जो चीन और पाकिस्तान लगातार पेश करते रहे हैं। तालिबानी अफगानिस्तान पर भी इन दोनों देशों की सोच अलग रही है, जबकि व्यापक सुरक्षा-खतरों को लेकर भारत, रूस, ईरान और मध्य एशिया के देशों की चिंताएं, सरोकार और चुनौतियां भिन्न हैं। लिहाजा तालिबानी अफगान को लेकर क्षेत्रीय संवाद और सहयोग अनिवार्य है। ईरान ऐसे दो संवादों के आयोजन कर चुका है। भारत ने ‘दिल्ली डॉयलॉग’ का आयोजन किया, जिसमें रूस, ईरान और मध्य एशिया के पांच गणराज्यों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों ने शिरकत की। पाकिस्तान और चीन को भी आमंत्रित किया गया था, लेकिन वे नहीं आए और अपना संवाद अलग से आयोजित किया। बहरहाल दोनों आयोजनों की तुलना नहीं की जा सकती, क्योंकि नीयत और नीति में गहरा अंतर है। भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने ‘दिल्ली संवाद’ की अध्यक्षता की। संवाद की धुरी आतंकवाद और मानवीय संकट रहे। सभी 8 देश इस बिंदु पर एकमत रहे कि तालिबान के कब्जे वाले अफगानिस्तान में आतंकवाद बढ़ रहा है।

यह आसपास के देशों को भी प्रभावित कर सकता है, लिहाजा ऐसे सामूहिक प्रयास किए जाएं कि आतंकी गतिविधियों के लिए अफगान ज़मीन का दुरुपयोग न हो सके। आतंकियों को पनाह, प्रशिक्षण के साथ-साथ आर्थिक मदद भी मुहैया न कराई जाए। आतंकवाद के विस्तार के मद्देनजर मादक पदार्थों की तस्करी पर लगाम लगाई जाए। ‘दिल्ली डॉयलॉग’ के तहत सभी 8 देशों ने जो साझा घोषणा-पत्र जारी किया है, उसकी अहम चिंता आतंकवाद है, लेकिन अतिवाद, इस्लामी कट्टरपंथ, अलगाववाद, कथित जेहाद पर भी सामूहिक सहयोग की अपेक्षा की गई है। ये देश चाहते हैं कि  अफगानिस्तान की हुकूमत समावेशी हो और उसमें तमाम समुदायों के प्रतिनिधि शामिल किए जाएं। यह कैसे संभव होगा, क्योंकि तालिबान की मानसिकता और संस्कार लोकतांत्रिक नहीं हैं। वे बर्बर और क्रूर हैं तथा वैसी ही हरकतें, जुल्म किए जा रहे हैं। ये बदले हुए तालिबान नहीं हैं, बेशक दावे कुछ भी करते रहें। बहरहाल चिंता और सरोकार आम अफगान की दुरावस्था पर भी जताए गए हैं। अफगानिस्तान के आर्थिक  हालात जर्जर हैं। भुखमरी का आलम है। अब भी वहां के नागरिक किसी भी तरह अपना देश छोड़ कर भाग जाना चाहते हैं। सीमा पार कराने के लिए ‘भुगतान’ किए जा रहे हैं। ऐसेे मंे ‘दिल्ली डॉयलॉग’ के देश सीधा अफगान लोगों तक मानवीय मदद पहुंचाना चाहते हैं। यह तालिबानी हुकूमत में कैसे संभव है? संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अफगानिस्तान में मानवीय मदद पहुंचाने के बार-बार आह्वान किए हैं, लेकिन संभव होता, तो आम नागरिक भूखों क्यों मरता? नौकरियां खत्म कर दी गई हैं। जिस माफीनामे का ऐलान और दावा तालिबान करते रहे हैं, वे खोखले, नाकाफी और झूठे हैं। अफगानिस्तान के सर्वोच्च धार्मिक नेता अखुंदजादा कह चुके हैं कि देश में गृहयुद्ध के हालात बन गए हैं। ऐसे विद्रोह अभी और भड़केंगे।  ऐसे हालात में ये 8 देश आम अफगानी तक कैसे पहुंच सकते हैं और उन्हें मानवीय मदद कैसे मुहैया करा सकेंगे, यह बेहद गंभीर और व्यावहारिक सवाल है। तालिबान मानवाधिकार की भाषा नहीं जानते, लेकिन समस्या यह है कि पख्तून भी तालिबान के खिलाफ हैं।

उनकी नई पीढ़ी शिक्षा और विकास की पक्षधर है। हालांकि तालिबान की पहली हुकूमत के दौरान पख्तून या तो खामोश रहे अथवा तालिबान का समर्थन करते रहे। अब तालिबान में ही कई धड़े हैं और उनमें मार-काट जारी है। हक्कानी पाकिस्तान में हुकूमत और तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के दरमियान समझौता कराने में जुटा है। यदि करार नहीं हुआ, तो आतंकवाद और बढ़ेगा। दरअसल तालिबान मानवाधिकार, पुलिस, कूटनीति और कानून-व्यवस्था आदि को नहीं जानते। उन्हें गोली चलाकर या सरकलम कर हत्या करना आता है। ऐसे में इन 8 देशों के प्रतिनिधि तालिबान हुकूमत को कैसे मना पाएंगे? क्या इन देशों के दबाव इतने भारी पड़ सकेंगे कि तालिबान नतमस्तक हो जाएं? हमें तो ऐसा नहीं लगता। हुकूमत में समावेशी होना अथवा दूसरे देशों में आतंकवाद न फैलाना तालिबान की फितरत और चिंताओं में शुमार नहीं हैं। बहरहाल भारत ने अफगानों के लिए वीजा की व्यवस्था शुरू करने की बात कही है। इससे अफगान दिल्ली तक आ सकेंगे। इससे तालिबान का सरोकार क्या है? क्या अफगानिस्तान के ऐसे नागरिकों को भारत में स्थायी ठिकाना और रोज़गार मिलेंगे? ये फिलहाल भारतीयों की ही बड़ी समस्याएं हैं।