बदलती चुनावी हवाएं

उप्र इतना विशाल राज्य है कि उसके किसी आकस्मिक बदलाव की व्याख्या करना असंभव-सा है। दुनिया के कई देश उप्र से छोटे हैं। उप्र के पूरे चुनावी माहौल की एकदम व्याख्या करना भी संभव नहीं है। मतदान 7 चरणों में कुल 403 सीटों के लिए होगा, जो मार्च तक फैला है। फिर भी चर्चाएं हैं कि कुछ चुनावी आख्यान जरूर बदले हैं। कुछ माहौल बदला है, लिहाजा चुनावी हवा की दिशाएं भी बदलती लग रही हैं। कुछ राजनीतिक समीकरण और संतुलन भी बदलते महसूस हो रहे हैं। पहले एकतरफा आख्यान था कि भाजपा को बढ़त हासिल है। पराजय की दहलीज़ पर अब भी नहीं है, लेकिन समाजवादी पार्टी कांटेदार मुकाबले में लग रही है। हम चुनावी मौसम में दलबदल और पालाबदल की चर्चा कर चुके हैं। उनकी दशा और दिशा भाजपा ही तय करती रही थी। दूसरे दलों से नेता टूटकर भाजपा में शामिल होते थे, लेकिन इस बार भाजपा सरकार के तीन मंत्री और आधा दर्जन विधायक पार्टी छोड़ कर सपा में शामिल हुए हैं। कई आख्यान बदलने लगे हैं। व्याख्या की जाने लगी है कि भाजपा उप्र में अभी तक के सबसे मुश्किल दौर में है। जिस ओबीसी ने 60 फीसदी से ज्यादा वोट भाजपा के पक्ष में दिए थे और ऐतिहासिक जनादेश तय किया था, अब माना जा रहा है कि ओबीसी भाजपा से छिटक भी सकते हैं।

 दरअसल हम ओबीसी की वैचारिक और सामुदायिक प्रतिबद्धता के पक्षधर नहीं हैं। जिधर सत्ता का संतुलन झुकता प्रतीत होता है, ओबीसी अक्सर उसी पाले में खिसक जाते रहे हैं। पिछड़े आज भी भाजपा के कट्टर समर्थक नहीं हैं। अलबत्ता वे प्रधानमंत्री मोदी के चहेते जरूर हैं। आख्यान ऐसा बनाया जा रहा है मानो सारे ओबीसी ही भाजपा छोड़ कर जा रहे हैं। ऐसा कोई संकेत या प्रमाण नहीं है। दरअसल जिन नेताओं ने दलितों, पिछड़ों और वंचितों के नाम पर पालाबदल किया है, वे संपूर्ण समुदाय के प्रतीक-नेता नहीं हैं। उनका ओबीसी और अन्य समुदायों में सशक्त जनाधार हो सकता है, इस हकीकत से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन भाजपा के पास भी उसका शीर्षस्थ, लोकप्रिय और देश के प्रधानमंत्री पद पर आसीन नेता मौजूद है। उप्र के पालाबदल नेताओं की तुलना में प्रधानमंत्री मोदी का आह्वान ज्यादा असरदार और ताकतवर है। वह चुनावी हवाएं बदलने में माहिर रहे हैं, लिहाजा भाजपा आज देश के सबसे अधिक राज्यों में सत्तारूढ़ है। प्रधानमंत्री मोदी भी अपराजेय नहीं हैं, लेकिन वोट उनकी अपील पर आकर्षित जरूर होते हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपनी गरीबी और ओबीसी के आधार पर वोट मांगे हैं। दलितों, पिछड़ों और खासकर महिलाओं में एक निश्चित समर्थन-वर्ग उनके साथ जुड़ा है, लिहाजा भाजपा को भी चुनावी लाभ मिलता रहा है। अभी प्रधानमंत्री उप्र में चुनाव प्रचार से दूर हैं। आचार संहिता लगने से पहले उन्होंने उप्र में कई परियोजनाओं के उद्घाटन और शिलान्यास किए थे। वह लगातार उप्र दौरे पर रहे, लिहाजा जब वह चुनावी मैदान में संबोधन के लिए उतरेंगे, उसके बाद आख्यान बदलने की व्याख्या की जानी चाहिए।

 जिन नेताओं ने भाजपा छोड़ी है, वे मूलतः भाजपा-संघ सोच और पृष्ठभूमि के नेता नहीं थे। दलबदल करते रहने के बाद भाजपा में आए थे, फिर दलबदल कर चले गए, लिहाजा भाजपा के प्रति मोहभंग का कोई आख्यान चर्चा में नहीं है। सवाल के साथ-साथ विडंबना भी है कि क्या उप्र का व्यापक चुनाव जातियों के आधार पर ही तय होगा? क्या बेरोज़गारी, महंगाई, गरीबी, अन्याय, महिला सुरक्षा और कोरोना की दूसरी लहर के दौरान नदी में तैरती लाशें आदि मानवीय मुद्दों पर चुनाव जरा-सा भी नहीं लड़ा जाएगा? दरअसल ये मुद्दे तो विपक्ष के बेहद अनुकूल हैं, लेकिन हवा जाति और धर्म की बहाई जा रही है। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री ने अपनी-अपनी सरकारों के जिन कार्यक्रमों और योजनाओं को उप्र में ज़मीनी स्तर तक लागू किया है, भाजपा उन पर वोट मांग रही है। अयोध्या और काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के अलावा मथुरा के श्रीकृष्ण मंदिर के निर्माण के जरिए हिंदुत्व पर भी भाजपा का फोकस है, लेकिन सपा के शिविर से सिर्फ दलित, ओबीसी, पिछड़े, वंचित सरीखी ही आवाज़ें बुलंद की जा रही हैं। वैसे भाजपा ने भी अपनी पहली सूची में 44 फीसदी उम्मीदवार ओबीसी ही घोषित किए हैं। यह भारत के देशनुमा राज्य का चुनाव है, लिहाजा कुछ तो सकारात्मक चुनाव होना चाहिए। उत्तर प्रदेश में इस बार हालांकि सपा व भाजपा में कांटे की टक्कर लग रही है, किंतु यह मुकाबला वास्तव में बहुकोणीय है।