अत्याधुनिक जागरण मिशन पर रूलिया

महीना की पहले अचानक हमारे मुहल्ले के कुत्तों के साथ एक नया कुत्ता कहीं से आकर और रोटी ढीस जुड़ गया। वैसे मैंने तो उसे उसकी बदतमीज हरकतों को देख पहली झलक में ही जान लिया था कि यह कुत्ता किसी मुहल्ले का कुत्ता नहीं। किसी और ही टाइप का है। मन किया, इसे रोटी न दूं। अपने हिस्से की रोटी को अब और कितने कुत्तों में बांटा जाए आखिर? पर अब जब बहुमत कुत्तों का था तो कुछ खुलकर कह भी नहीं सकता था। पर अब सवाल ये कि करे तो करे, पर कुत्ते से बात कौन करे? वह भी नए कुत्ते से। जिसके न स्वभाव का पता, न काटने के दांव का पता। आखिर अपने यहां के ठेठ साढ़े चार चिंतक टाइप के आदमी बड़ी मुश्किल से एक साथ एक दूसरे को गालियां देते इकट्ठा हुए और नए कुत्ते के बारे में सोचने लगे। …घंटों अपनी अपनी जेब पकड़े बिन चाय के विमर्श हुआ। विमर्श के अंत में तय हुआ कि कुत्तों की भाषा जानने वाले की तलाश की जाए ताकि इस कुत्ते से बात कर पता चले कि किस वजह से, किसकी वजह से ये ऐसा हरकती है? कुत्तों की भाषा के भाषाविद की तलाश हुई और सौभाग्य से कुत्तों की भाषा समझने वाला भाषाविद हमें मिल ही गया। उस कुत्तों के भाषाविद ने अपने अनुभव को सांझा करते बताया कि उसका सड़क से लेकर दफ्तर तक दिन में बीस बीस बार किस्म किस्म के कुत्तों से निरंतर वास्ता पड़ता रहता है। इसलिए वह अपने देश के कुत्तों की ही नहीं, विदेशी कुत्तों की भाषा को भी सूक्ष्मता से बोल, सुन, समझ सकता है। उसकी आदमियों की भाषा में उतनी पकड़ नहीं जितनी कुत्तों की भाषा पर है। उसके साथ कुत्तों की भाषा का ट्रांसलेटर भी था ताकि उस कुत्ते और कुत्तों की भाषा के भाषाविद के बीच जो संवाद हो उसे हम लाइव सुन समझ सकें।

 जैसे ही कुत्तों की भाषा के भाषाविद ने उस कुत्ते से कुत्ते की भाषा में बात करनी शुरू की तो वह कुत्ता उसके पांव चूमने लगा। कुछ ही देर में वे दोनों बातें करते करते आपस में इतने घुल मिल गए कि यह पता करना मुश्किल लग रहा था कि आदमी के बीच में कुत्ता है या कुत्ते के बीच आदमी। दोनों के बीच हैलो शैलो, पंजा मिलाई हुई तो बात आगे बढ़ी। कुत्तों की भाषा के भाषाविद ने अपनी जीभ चाटते कुत्ते से पूछा, ‘और दोस्त! तुम किसके कुत्ते हो? अपने लोकप्रिय मालिक के?’ ‘नहीं! कुत्तों को कोई लोकप्रिय नहीं होता। वे ही हर पार्टी के लोकप्रिय होते हैं’, कह उसने उसके मुंह पर अपनी पूंछ प्यार से मारी तो उसने फिर पूछा, ‘तो किसी नौटंकी के अभिनेता के?’ ‘नहीं!’ अबके फिर उस कुत्ते ने हंसते हुए भौं भौं की तो दुभाषिए ने बताया, ‘मित्रो! न कह रहा है।’ तो कुत्तों की भाषा बोलने, समझने वाले ने उससे अगला सवाल किया, ‘तो तुम किसी रूलिंग के हो या फिर फूलिंग के? थानेदार के हो या हवलदार के? पटवारी के हो फिर तहसीलदार के?’ कुत्तों की भाषा के भाषाविद के मुखारविंद से यह सुन उस कुत्ते ने सिर उठाए मुस्कुराते भौं भौं कहा, ‘मित्र! न मैं थानेदार का कुत्ता हूं, न हवलदार का। न पटवारी का, न तहसीलदार का। मैं फूलिंग का नहीं, रूलिंग का हूं। अत्याधुनिक जागरण मिशन के तहत शांति, सद्भावना, भाईचारे की दुर्गंध फैलाने देश भ्रमण पर निकला हूं।’ ‘बस! अब आगे कुछ नहीं। हम समझ गए कि ये क्यों हर दरवाजे को अपने बाप का समझ वहां अड़ा तड़ा रहता है’, वर्माजी ने नकली दांत निपोरते कहा और भले चंगे संवाद के रंग में भंग डाल अपने हो लिए।

अशोक गौतम

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