पागल का दर्पण

दुनिया उसे पागल समझती है, लेकिन वह खुद को हर आईने के सामने निर्दोष मानता है। वह आईनेवाला व्यक्ति है, इसलिए समाज उसे अलग करके देखता है। वह अपने एक हाथ में दर्पण रखता है और अक्सर किसी को भी दिखाकर खिलखिला कर हंसता है। उसके दर्पण को झूठा बनाने के लिए उसे ही पागल घोषित करने वाले कम नहीं। उसने आईना यूं ही नहीं पकड़ा, बल्कि जन्म से आज तक देखा कि लोग आईना बने घूम रहे हैं, जबकि किसी में इतनी हिम्मत नहीं कि इसके सान्निध्य में खड़े हो जाएं। उस दिन उसने मुझे भी आईना दिखा दिया। मैं स्पष्ट रूप से देख रहा था कि यह शक्ल अपनी ही करतूत से कितनी भिन्न होती है। मैंने हल्के से दर्पण के आगे विजयी चिन्ह बनाया ही था कि वहां से ‘बगैरा-बगैरा’ नारे गूंज गए। मैं मुस्कराया ही था कि वहां से ‘सत्ता पक्ष’ का मान लिया गया। मेरी मुद्राओं को भांपे बगैर दर्पण जल्दी में संदेश दे रहा था। उस दिन मुझे लगा कि दर्पण के कारण ही अधिकांश लोग पागल क्यों लगते हैं। दरअसल दर्पण ही पागलखाना है, क्योंकि आज के दौर में सच को देखना, समझना और कबूल कर लेना किसी को भी पागल कर सकता है।

 अपने देश में सच का साथ देने वाले आज हैं कहां, जो हैं वे अव्वल दर्जे के पागल ही तो हैं। सबसे अधिक दर्पण शादियों, चुनाव प्रचार, तीज-त्योहार और धार्मिक समारोहों में घूमते हैं। हम चाहें तो दर्पण को उल्टा लटका दें या चाहें तो इसके सामने उल्टा पढ़ लें। आश्चर्य तब होता है जब लोगबाग दर्पण चुरा लेते हैं। काश, पागलों से दर्पण छीन लिए जाएं ताकि वे भी दुनिया जी सकें। भारत में सबसे अधिक आईने खोने का दर्द राहुल गांधी से पूछिए, हर बार कांग्रेस की हार के पीछे इस दर्पण का दोष है। कांग्रेसी भी नहीं चाहते कि राहुल दर्पण देखें, लेकिन वह देश को देखने की जिद्द पर इसी के माध्यम से झांक रहे हैं। यह दर्पण की इच्छा पर निर्भर है कि किसे देखे, किसे दिखाए। अब तो सत्ताओं ने ऐसे दर्पण बना लिए हैं, जो हर छवि में राष्ट्र भावना को दिखाते हैं। इसलिए इसके सामने अब कोई वस्तु या व्यक्ति आता है तो राष्ट्र भावना झांक रही होती है।

अब तो आईने ही बताते हैं कि वे कितने राष्ट्रभक्त हैं। हमें ऐसे ही आईनों पर भरोसा करना है, जो बता सकें कि घर आया सिलेंडर किस भावना से देशभक्ति कर रहा है। पूरा देश इन्हीं आईनों के सामने महंगाई को भी राष्ट्रभावना से देख रहा है। पेट्रोल की हर बूंद दर्पण है और इसीलिए उपभोक्ता देशभक्त है। हमारे हर सवाल पर दर्पण का पहरा है। इस दर्पण ने पंजाब पुलिस को बता दिया था कि दिल्ली में भाजपा नेता को मत पकड़ो। इसी दर्पण ने हरियाणा पुलिस को अपने भीतर झांकने की अनुमति देते हुए राष्ट्र भावना के तहत पंजाब पुलिस से तेजिंद्र पाल बग्गा को वापस दिल्ली पहुंचा दिया। देश को पुराने आईनों की जरूरत नहीं, बल्कि वे सभी तोड़ने पड़ेंगे, जिनमें से झांक कर हमने आजादी देखी थी। अब आजादी को यह मंजूर नहीं कि इसके आगे दर्पण दीवार बन जाएं। देश ने मान लिया कि जो दर्पण पर भरोसा करता है, पागल है। दर्पणवाला पागल भी समझने लगा है, उसके सामने देश बड़ा है। वह बड़े देश को पहले दर्पण से देखना चाहता था, लेकिन अब अपने लिए देश को देखना चाहता है। अंततः उसने दर्पण तोड़ने के लिए चुनाव को चुना। उसी की तरह सभी मतदाता अपने-अपने लिए दर्पण तोड़ रहे थे। वे पागल नहीं थे, लेकिन अपनी-अपनी छवि से भागते हुए मतदान कर रहे थे। कल तक पागल बना रहा दर्पणवाला सोच रहा था कि चुनाव तो दर्पण के बिना ही पागल बना देता है और जनता यह मानने को तैयार नहीं होती, शायद बेवकूफ बनाने की समझदारी दर्पण तोड़ने में है।

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक