अब शिक्षा का थप्पड़द्वार

अपनी सियासी पूंजी बढ़ाने के जोश में भी कई बार नेता अपनी सीमाओं का उल्लंघन कर देते हैं और इस तरह का एक वाकया हिमाचल विधानसभा के उपाध्यक्ष डा. हंस राज के साथ जुड़ रहा है। हम यह नहीं कह सकते कि विधायक ने अपनी पाठशाला क्यों सजाई, लेकिन शिक्षा संस्थानों के आदर्श किसी राजनीतिक प्रवचन से उद्धृत होंगे, यह भी नहीं मान सकते। हंस राज ने ‘विधायक विद्यालय के द्वार’ कार्यक्रम चला कर कुछ गुणात्मक करने का सोचा होगा, लेकिन वरिष्ठ माध्यमिक पाठशाला रैला में वह अपनी सीमाएं भूल कर ऐसा आचरण कर बैठे, जिसे आधुनिक शिक्षा के मानदंड और सोशल मीडिया के रंग-ढंग स्वीकार नहीं करते। इसलिए विवाद यह है कि छात्रों की क्लास लेते हुए विधायक का पुलिसिया रौब किसी छात्र के गाल पर थप्पड़ जमा सकता है या इससे भी आगे प्रश्न यह भी कि जहां शिक्षा की गति और छात्र समुदाय की मति केवल पाठ्यक्रम की वार्षिक परीक्षा से ही साबित होती हो, वहां ऐसी मंत्रणाएं कहां तक प्रासंगिक हो सकती हैं। जहां अध्यापक भी सरकारी नौकर की तरह राजनीतिक जी हुजूरी की कठपुतली बन जाए या शिक्षा से इतर सरकारी कामकाज की मशीनरी की तरह खुद को ढोना शुरू कर दे, वहां गुणात्मक फर्क लाने के लिए नीतियों और कार्यक्रमों की सदाशयता चाहिए।

 विधायक हंस राज अपने बचाव में ही सही शिक्षा के ढर्रे और ढांचे की वस्तुस्थिति सामने ले आते हैं। बकौल विधायक उनके विधानसभा क्षेत्र की कुल 32 वरिष्ठ माध्यमिक पाठशालाओं में से 16 के पास प्रिंसीपल तक नहीं हैं। यह स्थिति का अधूरा मुआयना होगा कि हम यह आकलन करंे कि किस स्कूल में क्या नहीं है, जबकि पूछा यह जाना चाहिए कि आखिर कितने गैर जरूरी शिक्षा संस्थान खोल कर हमारा राजनीतिक दबदबा बढ़ेगा। बेहतर होता चुराह क्षेत्र में 32 के बजाय 16 ही वरिष्ठ माध्यमिक स्कूल होते, लेकिन यहां तो फिरौती पर पाठशालाएं बंटती हैं। आश्चर्य है कि प्रदेश में 153 प्राथमिक स्कूल बिना छात्रों के, जबकि 1991 एक ही अध्यापक के सहारे चल रहे हैं। चौसठ फीसदी कालेजों में नियमित प्राचार्य नहीं, फिर भी कई विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां तीन से चार सामान्य महाविद्यालय खुल गए या खोले जा रहे हैं। जब विधायक अपना द्वार सजा कर शिक्षा के संबोधन चुनता है, तो उसकी अनुगूंज केवल सियासी मंशा में ही होगी, लेकिन उसे तो शिक्षा सचिवालय से विभाग की क्षमता बढ़ानी चाहिए थी। अगर 16 स्कूल बिना प्राचार्य के रहेंगे, तो हंस राज ऐसा क्या करिश्मा कर सकते हैं कि छात्र समुदाय अपने स्कूल के मजमून से ऊपर नजर आएं। बेशक स्कूलों में अनुशासनहीनता होगी या छात्रों को नैतिक सबक देने का वातावरण भी पैदा करना होगा, लेकिन इसके लिए शिक्षा मंत्री से कौन पूछेगा। सबसे बड़ा प्रश्न तो यह कि शिक्षा की सरकारी पैरवी या तो अध्यापकों की भर्ती या उनकी सियासी नियुक्ति का प्रत्यक्ष या परोक्ष फार्मूला बन गई है। शिक्षक आज मन और कर्म से स्कूल में होता ही कितने समय के लिए, जबकि हकीकत में उसे विभिन्न शिक्षक संघों की सदस्यता में अपनी पक्की नौकरी, पक्का ठौर और पक्की सियासत की सीढि़यां तय करनी हैं।

 विधायक हंस राज खुद बता सकते हैं कि उनके क्षेत्र के कितने अध्यापकों की शिनाख्त में उन्हें भरोसा है कि आगामी चुनाव में वे उनकी जीत पक्की करेंगे। यह हर कर्मचारी का किसी विधायक से व्यावहारिक रिश्ता बन चुका है, तो फिर ईमानदारी से पढ़ाने वाले को विभाग चुनेगा कैसे। लगभग सभी सरकारी शिक्षक इतने योग्य, निपुण तथा सक्षम हैं कि किसी विधायक को ‘शिक्षा का द्वार’ सजाना नहीं पड़ सकता, लेकिन सियासी और सत्ता की रिवायतों ने सारा मूल्यांकन ही ध्वस्त कर दिया। निजी विद्यालय क्यों अभिभावकों और छात्रों की जरूरत बन गए, यह जानकर अगर चुराह के  विधायक यही अभियान चला देते कि उनके क्षेत्र के सरकारी स्कूल अव्वल होंगे, तो शायद थप्पड़ जहां रसीद होना चाहिए, वहां होता। हैरानी यह कि सार्वजनिक क्षेत्र में शिक्षा की बदनसीबी का थप्पड़ उस छात्र की गाल पर पड़ रहा है, जो आज भी सरकारी ढांचे को वरीयता दे रहा है। यही हाल रहा तो आने वाले समय में सरकारी स्कूलों की इमारतें और इमारतों के भीतर ‘विधायक विद्यालय के द्वार’ जैसे कार्यक्रम केवल गूंगी-बहरी दीवारें ही सुनेंगी। खुदा के लिए शिक्षा को शिक्षाविदों की अमानत बना दो और इसके लिए यह प्रण लेना होगा कि आइंदा कोई भी सियासी ओहदेदार शिक्षण संस्थानों के किसी भी आयोजन का हिस्सा न बने, बल्कि समाज के श्रेष्ठ व अपने-अपने क्षेत्र के दक्ष लोगों को छात्रों के सामने आदर्श के रूप में पेश किया जाए।