सामाजिक आयोजनों की व्यवस्था पर सवाल

यह सामाजिक दुर्व्यवस्था कब परिवर्तित होगी? प्रत्येक दिन इस तरह की घटनाएं घटित होती रहती हैं। विवाह समारोह एवं अन्य धार्मिक आयोजन स्थलों पर नित प्रति आरक्षित वर्ग के लोगों को अपमानित किया जाता है। किंतु ये लोग फिर भी अपनी आस्था लिए हुए इन स्थानों पर तिरस्कृत होने के लिए जाते हैं। न मालूम इनके दिमाग पर ऐसा क्या प्रभाव एवं भय है कि न तो ये लोग इनका विरोध कर पाते हैं और न इनसे उलझ पाते हैं। इनकी शिकायत तक नहीं कर पाते! अभावग्रस्त एवं भयभीत समाज इन कुरीतियों का विरोध करने की हिम्मत ही नहीं रख पाता। हिंदू धर्म के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन से लेकर अंत तक सोलह संस्कारों को जीता एवं भोगता है, किंतु जब उसके जीवन का अंत होता है तो भी इन आरक्षित वर्ग के लोगों के साथ ऐसा ही व्यवहार किया जाता है…

समाज में आयोजित किए जाने वाले प्रीतिभोज प्रेम और सद्भावना के प्रतीक होते हैं, किंतु वह समय दुखद होता है, जब किसी आरक्षित वर्ग के घर में आयोजित होने वाले समारोह में खाना बनाने का काम करने वाले ‘मजदूर’ घर के मालिक बन जाते हैं और घरवाले घर से बाहर कर दिए जाते हैं। इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि जिसके घर में खुशी के समारोह का आयोजन होता है, वह आयोजन दुख में परिवर्तित कर दिया जाता है, ऐसी अनाउंसमेंट करके कि ‘जिनके घर में आयोजन हो रहा है, उनके नजदीकी रिश्तेदार एवं वे खींची गई रेखा के एक और भोजन करेंगे और जिनके साथ आयोजकों का खूनी रिश्तों का कोई संबंध नहीं है, उन्हें मुख्य प्रांगण में बैठा करके भोजन परोसा जाएगा।’ इस वर्ष हमारा देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। क्या वास्तव में यह अमृत महोत्सव उन घरों में भी मनाया जा रहा है जिन घरों के नागरिक आज भी जाति  एवं  वर्ण के आधार पर बहिष्कृत एवं तिरस्कृत किए जाते हैं। क्या किसी प्रतिष्ठित कुल के वंश में जन्म लेना सारे अवगुणों को गुणों में परिवर्तित कर देता है? जातीय गुणों की शक्ति क्या इतनी अधिक होती है कि जिसका तोड़ बड़े-बड़े समाज सुधारक जैसे कि महात्मा बुद्ध, संत कबीर, संत रविदास, ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, पेरियार आर स्वामी,  डा. भीमराव अंबेडकर एवं असंख्य सामान्य वर्ग से  संबंध रखने वाले महान समाज सुधारकों की विचारधारा एवं त्याग सामाजिक व्यवस्था को दूषित करने का काम करने वाले नागरिकों की सोच में परिवर्तन नहीं कर सके। क्यों आज भी सामाजिक समारोह एवं धार्मिक स्थलों पर ऐसे भेदभाव सरेआम किए जाते हैं? विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका मूकदर्शक हो करके इन निरीह नागरिकों का अपमान होते  देखकर कोई भी कानून नहीं बनाती।

 क्यों न्यायपालिका स्वतः संज्ञान लेते हुए कोई आदेश जारी नहीं करती कि यदि कोई इस तरह का दुर्व्यवहार करेगा तो उसके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई अमल में लाई जाएगी। ये कैसी सामाजिक व्यवस्था है कि जहां इनसान को इनसान नहीं समझा जाता। उसके साथ पशुओं से भी बदतर व्यवहार किया जाता है और समाज के प्रतिष्ठित लोग मूकदर्शक बनकर नजारा देखते हैं। क्या ऐसे भेदभाव करते-करते हमारा देश विकासशील देश से विकसित देश की श्रेणी में आ जाएगा? क्यों आज भी हमारी शिक्षा व्यवस्था लाचार सी नजर आती है जो अपने नागरिकों को  सभ्यता एवं भाईचारे का पाठ नहीं पढ़ा सकती। क्यों शिक्षा के माध्यम से समानता  के पाठ नहीं पढ़ाए जा रहे हैं? यह भेदभाव कब तक चलता रहेगा? क्या हम पुनः पतनोन्मुख नहीं हो रहे हैं? सैकड़ों वर्ष की गुलामी भी हमें समानता का पाठ नहीं पढ़ा सकी। हमारे देश को स्वतंत्र करवाने वाले वीर योद्धा स्वतंत्रता सेनानियों ने क्या इसी स्वतंत्रता की परिकल्पना की थी, कि इस देश का नागरिक स्वतंत्र होते हुए भी परतंत्र रहेगा और अपने देश  के नागरिकों द्वारा ही बहिष्कृत एवं तिरस्कृत किया जाएगा। उसके साथ, उसके देश, प्रदेश, नगर एवं गांव-गली के लोग ही द्वेषपूर्ण व्यवहार करके उसे हर पल हर क्षण उसका अपमान करके  जिंदा  ही मारते रहेंगे। यह कैसी स्वतंत्रता है? यह कैसी सामाजिक समानता है? क्या यह सामाजिक समानता केवल मात्र कागजों में लिखने के लिए ही है? यह सामाजिक दुर्व्यवस्था कब परिवर्तित होगी? प्रत्येक दिन इस तरह की घटनाएं घटित होती रहती हैं। विवाह समारोह एवं अन्य  धार्मिक आयोजन स्थलों पर नित प्रति आरक्षित वर्ग के  लोगों को अपमानित किया जाता है।

 किंतु ये लोग फिर भी अपनी आस्था लिए हुए इन स्थानों पर  तिरस्कृत होने के लिए जाते हैं। न मालूम इनके दिमाग पर ऐसा क्या प्रभाव एवं  भय है कि न तो ये लोग इनका विरोध कर पाते हैं और न इनसे उलझ पाते हैं। इनकी शिकायत तक नहीं कर पाते! अभावग्रस्त एवं भयभीत समाज इन कुरीतियों का विरोध करने की हिम्मत ही नहीं रख पाता। हिंदू धर्म के अनुसार  प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन से लेकर अंत तक सोलह संस्कारों को जीता एवं भोगता है, किंतु जब उसके जीवन का अंत होता है तो भी इन आरक्षित वर्ग के लोगों के साथ ऐसा ही व्यवहार किया जाता है। कुछ सार्वजनिक दाह संस्कार स्थलों पर उनके शव  की अंत्येष्टि तक नहीं करने दी जाती। ऐसे घृणित कृत्य करने की न तो देवी-देवता सलाह देते हैं और न कोई धर्मगुरु ऐसा सिखाते हैं। क्या हमारे धार्मिक आयोजनों एवं धर्म की इतनी कच्ची नींव है कि इसे कोई भी जब चाहे हिला कर अपने अनुसार मोड़ सकता है, इन पतितों का अपमान करने का प्रमाण पत्र देता है। ऐसे प्रश्न प्रत्येक सामाजिक कुरीतियों से घिरे हुए व्यक्ति के मन में आते हैं, किंतु वह कुछ नहीं कर सकता। यदि लड़ता-भिड़ता है तो कानून के हिसाब से गलत ठहराया जाता है। ऐसे आरक्षित वर्ग के लोगों के पास केवल मात्र एक ही विकल्प शेष रहता है कि वह चुपचाप हर दिन जीते जी  मरता रहे। यद्यपि  स्वातंत्र्योत्तर भारत में बहुत विकास हुआ है, किंतु सामाजिक कुरीतियां ज्यों की त्यों पैर पसारे हुए हैं तथा लोगों का शोषण करके उन्हें दिनोंदिन तिरस्कृत करती रहती हैं। अब छुआछूत प्रथा बंद होनी चाहिए।

डा. राजन तनवर

एसोसिएट प्रोफेसर