कुर्सी मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है…

परतंत्र भारत में लोकमान्य तिलक ने अंग्रेजों से साफ शब्दों में कहा था कि ‘स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और इसे मैं लेकर रहूंगा।’ इसके बदले मिली उनको असंख्य यातनाएं और जेल यात्राओं की अनवरत त्रासदियां। लेकिन वे अपनी बात से अंतिम समय तक नहीं हटे तथा आजादी की अलख को जलाए रखा। उस समय ऐसे ही नेताओं की भरमार थी, जो भारत माता को परतंत्रता की बेडि़यों से मुक्त कराने के लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए थे। उन्हें अपने देश से असीम प्रेम था। आज का नेता भी इस मामले में कहां कम है। बस उस समय आजादी की चाहना थी और आज कुर्सी की। आज के नेता का यही कथन है कि कुर्सी मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा। पहले भारत के लिए मर मिटने की तमन्ना थी और अब कुर्सी के लिए कुछ भी कर गुजरने की लालसा है। बस चाहनाएं बदली हैं, बाकी नेताजी उस समय के नेताओं से कहां पीछे हैं। कुर्सी पर जन्मसिद्ध अधिकार का मतलब नेताजी का इस बात से है कि अब राजनीति में वंशवाद की विषबेल तेजी से फल-फूल रही है। नेता का बेटा नेता ही बनता है, वह कोई दूसरा व्यवसाय या धंधा नहीं अपनाता।

 एक बार तो राजनीति में आ गया, बाद में उसका बेटा या बेटी, भाई या बहिन, पत्नी या साला अथवा भतीजे-भतीजी आराम से प्रवेश कर गए हैं। उसे राजनीति के लिए किसी खास पृष्ठभूमि तैयार करने की आवश्यकता नहीं है। पृष्ठभूमि यही है कि उनके पिताजी, काकाजी या जीजाजी ने पोजीशन ले ली है, उसके आधार पर वे सीधे ही सांसद या विधायक का टिकट प्राप्त कर लेते हैं। टिकट मिलने के बाद कुर्सी कोई ज्यादा दूर नहीं रहती। कुर्सी चलकर उनके पास आ जाती है। जब कुर्सी आ जाती है तो वे कुछ भी अवैध कार्य करने को स्वतंत्र होते हैं, क्योंकि वे स्वतंत्र भारत में रहकर राजनीति का धंधा कर रहे हैं। कुर्सी की प्राप्ति के लिए चाहे उन्हें कुछ भी करना पड़े, करते हैं। पता नहीं कितनी बार दल बदलते हैं। यही अवसरवादिता तो उन्हें कुर्सी दिलवाती है। चुनाव जीतने के लिए साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता, जातीयता तथा भाषावाद जिसकी भी आवश्यकता है, उसका आसरा लेते हैं। नए-नए गठबंधन, नए से नए गठजोड़ और तालमेल तथा नए से नया समीकरण कुर्सी हथियाने के गुर हैं।

 राजनीति में जो जितना गिरता है, वह उतना ही ऊंचा उठता चला जाता है। चुनाव जीतने के जितने भी तरीके हैं, उनके लिए करोड़ों रुपयों की आवश्यकता होती है, नेताजी इसके लिए घोटालों पर घोटाले करते चले जाते हैं। भ्रष्टाचार उनके दोनों हाथों का नायाब खेल है। जांच आयोग बैठ जाए तो नेताजी के कैरियर में चार चांद लग जाते हैं। वे बराबर सुर्खियों में बने रहकर अपनी प्रतिभा के तेज से जनमानस की आंखों को चुंधियाते रहते हैं। क्योंकि पहली बात तो जांच आयोग की रिपोर्ट वर्षो तक आती नहीं और मामले न्यायालयों में लंबित चलते रहते हैं और यदि रिपोर्ट आ भी जाती है तो वह टांय-टांय फिस्स होती है। उसमें नेताजी साक्ष्यों के अभावों में बेदाग और निर्दोष पाए जाते हैं। जितने भी मामले अब तक हुए हैं, उन पर दृष्टिपात कर देख लीजिए। किसी नेता का आज तक बाल भी बांका नहीं हुआ है, क्योंकि ज्यादातर नेता गंजे होते हैं। गंजे पर शर्म का पानी ठहरता नहीं, चाहे चीनी, चारा, यूरिया, बोफोर्स या हवाला का मामला बनाम घोटाला हो, तमाम नेता देश के कर्णधार बने हुए हैं। अग्रिम बेल मिल जाती है और उनकी कुर्सी ज्यों की त्यों बनी रहती है, क्योंकि कुर्सी उनके जन्मसिद्ध अधिकार में सम्मिलित है तो वह भला छीनी भी कैसे जा सकती है।

पूरन सरमा

स्वतंत्र लेखक