विद द ग्रेस ऑफ ऑल्माइटी डॉग

वैसे मित्रो! सोसाइटी में अपनी पहचान बनाने के लिए आदमी क्या क्या पुट्ठे सीधे काम नहीं करता? किस किसके अव्वल दर्जे का मौकापरस्त होने के बाद भी वफादार कुत्ते की तरह तलुए नहीं चाटता? जिससे मन करे पूछ लीजिए। अगर वह आदमियत के प्रति जरा सा भी जवाबदेह होगा तो सब उगल देगा। ऐसे ही कई महानुभावों की तरह सोसाइटी में पहचान बनाने के लिए मैंने जायज नाजायज तक वह सब कुछ सीना तान कर किया जो बहुधा पूरी ईमानदारी से किया जा सकता था। वैसे यहां जायज नाजायज कुछ नहीं होता मित्रो ! इतिहास गवाह है, आदमी जब जब नाजायज का सहारा लेकर सफल हुआ है तो कल तक उसको मुंह भर भर गालियां देने वाला समाज उसके नाजायज को जायज डिक्लेयर कर उसकी आरती उतारता रहा है। जब मैं सोसाइटी में अपनी पहचान के लिए अपने व्यक्तित्व को लहूलुहान कर चुका तो मुझे एक पहचान से बहुत ऊपर उठ चुके ने बताया, ‘मित्र! जो सोसाइटी में अपनी पहचान बनाना चाहते हो तो एक कुत्ता रख लो।

 देखते ही देखते पहचान की बुलंदियों पर पहुंच जाओगे। कुत्ते से सोसाइटी में गजब की पहचान बनती है।’ और मैं उनके कहने पर ट्रायल बेस पर कुत्ता यह सोचते ले आया कि जब घैंठ आदमियों के साथ रहते मैं अपनी पहचान नहीं बना पाया तो इस कुत्ते की वजह से मेरी सोसाइटी में क्या खाक पहचान बनेगी? पर चलो, ट्राई करने में जाता क्या है? मरने के लिए हम अमृत भी तो ट्राई कर लेते हैं। अभी घर में कुत्ता लाए हफ्ता ही हुआ था कि शाम को जब मैं उसके साथ घूमने निकलता तो आसपास छोटों बड़ों का झुंड मुस्कुराता हुआ खड़ा हो जाता, कुत्ते के साथ मुझे घेरकर वह झुंड कभी मुझे गौर से देखता तो कभी उस कुत्ते को। जब वे कुत्ते से बात करते तो लगता ज्यों वे मुझसे बात कर रहे हों और जब वे मुझसे बात करते तो लगता ज्यों वे कुत्ते से बात कर रहे हों। तब लगता ज्यों उन्हें कुत्ते में मैं नजर आ रहा हूं और मुझमें कुत्ता। या कि कुत्ता मुझमें एकाकार हो गया हो अथवा मैं कुत्ते में। धीरे धीरे मैं सोसाइटी में पहचाना जाने लगा।

मैंने भी सोचा, जिस दिन सोसाइटी में मेरी इंडिपेंडेंट पहचान हो जाएगी, उस दिन कुत्ते को तिलांजलि दे दूंगा। अब जिस दिन कुत्ता मुझे लेकर घूमने न निकलता उस दिन सब परेशान हो उठते। कई तो तब मुझे फोन तक कर देते, ‘और कुत्ते वाले भाई साहब! कैसे हो? आज भी कुत्ते के साथ घूमने नहीं आए? कुत्ता कुशल तो है न! वाह! भाई साहब! कुत्ते के साथ आप कितने मस्त मस्त लगते हो! लगता है आपको और कुत्ते को खुदा ने एक दूसरे के लिए ही बनाया है। कई बार तो आपमें और कुत्ते में कोई फर्क नहीं लगता। तब बहुत मशक्कत करनी पड़ती है आपमें कुत्ते और कुत्ते में आपको ढूंढने के लिए। खुदा के लिए कुत्ते के साथ शाम को घूमने आ जाया करो प्लीज! हम जब आपको कुत्ते के साथ कुत्तामय हुआ देखते हैं तो मत पूछो हमारे मन को कितना आनंद मिलता है! हमारी उम्र भी आप और कुत्ते को लग जाए बस!’ जिस आदमी को सोसाइटी में अपनी पहचान बनानी हो तो उसे अपनी पहचान बनाने के लिए आदमी के साथ बिल्कुल नही रहना चाहिए, चाहे वह कितना ही ग्रेट क्यों न हो। आदमी के साथ रहकर आदमी अपनी पहचान खो देता है। आदमी की पहचान सोसाइटी में कुत्तों के साथ रहकर ही बनती है। वे कितनी टांगों वाले हैं, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। मुझे सोसाइटी में पहचान देने के लिए एक बार फिर मन की गहराइयों से तुझे शत शत प्रणाम हे परमादरणीय कुत्ते! क्या बताऊं तूने मेरी पर्सनैलिटी में कितनी जान फूंक दी है डियर! अब तो तेरे भौंकने की आवाज से ही सोसाइटी मुझे पहचानने लगी हे मेरे ऑल्माइटी! मैं अब तक कहां था माय डार्लिंग!

अशोक गौतम

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