महान स्वतंत्रता सेनानी पं. इंद्रपाल

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

अतिथि संपादक, डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -44

विमर्श के बिंदु
1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
7. हिमाचल में रचित अंग्रेजी साहित्य
8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
10. हिमाचल में रचित पंजाबी साहित्य
11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

डा. ओपी शर्मा, मो.-8219277144

-(पिछले अंक का शेष भाग)
इन्द्रपाल सरकारी गवाह बना और फिर पलट गया, इतना कह देने से बात स्पष्ट नहीं हो जाती। यशपाल, धन्वन्तरी और सुखदेव राज आदि के झगड़े से इन्द्रपाल और उसके द्वारा दल से सम्बन्ध रखने वाले लोग खिन्न हो गए थे। वे अपनी समझ से अलग ही काम करने लगे थे। इन्द्रपाल जानता था कि उसे दल की ओर से संगठन बनाने का अधिकार नहीं है, इसलिए उसने अपने कामों का उत्तरदायित्व दल पर न आने देने के लिए, अपने इस संगठन का नाम आतिशीचक्र रख लिया था। इस संगठन द्वारा पंजाब में कई जगह बम विस्फोट के परिणामस्वरूप जब गिरफ्तारियां आरम्भ हुई तो लायलपुर में इस दल के प्रभाव में काम करने वाले पुलिस के दो सिपाही मलिक कुंदनलाल, बंसी लाल और दूसरे साथी भी सप्ताह में ही गिरफ्तार हो गए। भाई धर्मपाल भी इन लोगों में था। वह बचने के लिए भागकर जालंधर में दसवीं श्रेणी में भर्ती होकर बोखडंग में रहने लगा था। वह भी गिरफ्तार कर लिया गया। अनुभवी साथी दल के लोगों को काफी समय तक पकाते-सधते रहते थे, सब प्रकार के कष्ट सहने के लिए प्रेरणा देते रहते थे।

सबसे पहले मलिक कुंदनलाल और बंसी लाल ने भेद खोला और जब पुलिस ने उनसे पाई सूचना के आधर पर दूसरों को मारपीट कर पूछताछ करनी शुरू की तो काफी साथी बकने लगे और अपनी कारगुजारियां कबूल कर बैठे। उनमें से कई अंग्रेजी राज में बहुत सम्मानित कार्यकर्ता बन गए। वह उनकी क्षणिक कमजोरी थी या इसका कारण उनका क्रांतिकारी भावना में ठीक से रह न पाना था। इन्हें मारा-पीटा भी खूब गया। लायलपुर के धर्मवीर के दोनों हाथ खाट के पांवों के नीचे रख कर कई-कई सिपाही खाट पर बैठ जाते। उसने चीखने-चिल्लाने के बावजूद भेद नहीं खोला। उसे कम्बल में लपेटकर उसकी अंधाधुंध पिटाई भी की गई, पर वह बोला नहीं। धर्मपाल को दीवार में लगे कड़े से हथकड़ी बांधकर पांच दिन और रात खड़ा रखा गया। दिन-रात में खाना लेने और शौच आदि के वास्ते लगभग एक घंटे के लिए खोला जाता था। वह यही कहता रहा कि मुझे कुछ मालूम नहीं। जब उसकी पिंडलियां जांघों की तरह सूज गई, उसने भूख हड़ताल कर दी। वह बेहोश हो गया। तब उसे लिटा कर सिपाहियों ने पांव से लताडऩा और गरम तेल की मालिश आदि करना शुरू किया, शायद इसलिए कि सुध आ जाए तो फिर वही यातना देकर बोलने के लिए विवश किया जाए। यदि धर्मपाल ने हथकड़ी से पहले दिन टांगे जाते ही भूख हड़ताल कर दी होती तो छह दिन न टंगना पड़ता। ऐसी यातनाएं प्राय: इन सभी लोगों को दी गई। मूंछों के बाल नोचे जाते और गुड़ के डले पर बहुत से चींटियां इक_ी कर, पायजामे में पौंचे नीचे से बांधकर गुड़ के डले को पायजामे में डाल दिया जाता। हाथ दीवार में गड़े खूंटे या कड़़े से बांध दिए जाते थे।

ऐसी यातनाएं पहले लाहौर षडय़ंत्र और दिल्ली षडय़ंत्र के अभियुक्तों को या बाद में यशपाल को भी नहीं दी गई। पुलिस ने इन लोगों के साथ ऐसा दुव्र्यवहार करने का साहस इसलिए किया कि वह इन्हें अनजान समझ गई थी। एक दिन धर्मपाल को दफ्तर में पूछताछ के बाद दोपहर के भोजन के लिए उसकी कोठरी में लाया गया। इन अभियुक्तों को खाना देने की ड्यूटी हवलदार फकीरचंद की थी। फकीरचंद धर्मपाल के लिए खाना लेकर आया तो धर्मपाल पर ड्यूटी देने वाले सिपाही अब्दुल सत्तार ने धर्मपाल की हथकड़ी फकीरचंद को थमा दी और संडास की ओर चला गया। फकीरचंद कांगड़ा का था। उसने पहाड़ी बोली में धर्मपाल से कहा- ‘पाध (पंडित) तुमसे बात करने के लिए बुला रहा है।’ इन अभियुक्तों को आपस में बात करने का अवसर नहीं दिया जाता था। धर्मपाल को संदेह हुआ कि यह आदमी कांगड़ा का है तो क्या हुआ, कहीं फांसने की चाल तो नहीं कर रहा। परंतु फकीरचंद ने सचमुच धर्मपाल को कोठरी से ले जाकर पीछे इन्द्रपाल की कोठरी के सामने खड़ा कर दिया। इन्द्रपाल ने बताया- ‘इस समय तक हमारे पांच साथी जो कुछ जानते थे, पुलिस को बता चुके हैं और प्राण भिक्षा के वचन पर सरकारी गवाह बनने के लिए तैयार हैं। यह लोग कम से कम सत्रह साथियों को फांसी पर लटकवा देंगे। अब्दुल अजीज (इस मुकद्दमे का इंचार्ज पुलिस सुपरिंटेंडेंट) मुझे गवाह बनाने के लिए फुसला रहा है क्योंकि और कोई गवाह अलग-अलग घटनाओं को जोड़ नहीं सकता और न इस मुकद्दमे का संबंध फरार आजाद और यशपाल की मार्फत पहले मुकद्दमे और दिल्ली षडय़ंत्र से जोड़ सकता है। इस तरह षडय़ंत्र नहीं बन पाता। मैं सोचता हूं कि मैं गवाह बनकर सब जिम्मेवारी अपने ऊपर ले लूं और सबको बचाने की कोशिश करूं। तुम्हारी क्या राय है?’ धर्मपाल ने उत्तर दिया- ‘सरकारी गवाह बनने की बात तो मैं किसी भी मोल पर नहीं मान सकता। तुम्हें अपने ऊपर इतना भरोसा है तो सोच लो।’ ‘तुम्हेें क्या मुझ पर भरोसा नहीं है?’

इन्द्रपाल ने पूछा। धर्मपाल ने कहा-‘अब तक तो भरोसा ही रहा है। तुम्हारी नीयत पर अब भी भरोसा कर सकता हूं, पर बात टेढ़ी है।’ इन्द्रपाल ने उत्तर दिया- ‘अच्छा मैं सोचूंगा।’ तीन-चार दिन बाद फकीरचंद ने धर्मपाल को रोटियां देते हुए पहाड़ी बोली में कहा- ‘सम्भल कर, रोटियों में पंडित का संदेशा है।’ तंदूर की रोटियों में बीड़ी बंडल के कागज पर इन्द्रपाल का संदेश था कि वह सरकारी गवाह बन गया है। डेढ़ मास तक इन्द्रपाल और पुलिस की गहरी छनती रही। मुकद्दमा अदालत में पेश हुआ। साठ-सत्तर गवाह भुगत चुके थे। इन्द्रपाल की बारी आई तो इन्द्रपाल सात दिन तक बयान देता रहा। बयान अखबारों में छपते थे। जो लोग पढ़ते थे, सिर पीट लेते थे। इन बयानों में भगवती भाई, आजाद और यशपाल की वे सब करनियां खोल-खोलकर बखानी गई थी जिनके कारण कोई भी सजा कम न होती। भगवती भाई तो शहीद हो चुके थे। आजाद और यशपाल अभी फरार ही थे। इन्द्रपाल के बयानों के कारण कोई नई गिरफ्तारी नहीं हुई थी। नियम के अनुसार इन्द्रपाल को नित्य बयान देने से पहले धर्म की कसम दिलाई जाती थी कि केवल सच ही बोलेगा, झूठ नहीं बोलेगा। आठवें दिन इन्द्रपाल ने अदालत में शपथ लेने से इन्कार कर दिया। कारण पूछने पर उत्तर दिया- ‘साहब, धर्म की कसम खाकर झूठ नहीं बोलूंगा। यह जन्म तो पुलिस ने बिगाड़ ही दिया, अब परलोक नहीं बिगाड़ सकता। वहां तो पुलिस साथ नहीं जाएगी। शपथ खाने के बाद तो एक ही बात कह सकता हूं कि पुलिस मुझ से झूठा बयान दिला रही है। शपथ न दिलवाइए तो जो पुलिस ने रटाया-पढ़ाया है, सब सुना सकता हूं।’

सरकारी वकील ज्वाला प्रसाद ने आपत्ति की- ‘गवाह बेइमान हो गया है और पुलिस पर झूठा आरोप लगा रहा है। अदालत ने इन्द्रपाल से इस बात का प्रमाण मांगा कि पुलिस उसे बयान पढ़ा रही है। इन्द्रपाल ने अपने कपड़ों में छिपाए पुलिस के लोगों के हाथ से लिखे कागज़ निकाल कर दिखा दिए और कहा, अदालत और सफाई के वकील मेरे साथ किले में हवालात की कोठरी में चलें तो वहां रखे हुए और कागज भी दिखा सकता हूं। उसने वही किया और बहुत से प्रमाण पुलिस द्वारा झूठा बयान बनाने के दिए। इन्द्रपाल ने अदालत से मांग की कि दोबारा मैं सच्चा बयान केवल इसी शर्त पर दे सकता हूं कि मुझे किले में पुलिस के कब्जे से हटाकर जेल की हवालात में भेज दिया जाए और अदालत मुझे विश्वास दिलाए कि सच्चा बयान देने के कारण मुझ पर अत्याचार नहीं किया जाएगा। उस पर सरकारी वकीलों ने जिरह की, परंतु वे उसे कहीं भी उखाड़ न पाए। केवल एक अवसर पर जिरह के उत्तर में उसने कहा- ‘मुझे याद नहीं।’ इन्द्रपाल के इस उत्तर से सरकारी वकील रायबहादुर ज्वाला प्रसाद ने बहुत संतोष से कहा- शुक्र है पंडित जी, एक बार तो आपके मुंह से निकला कि मुझे याद नहीं।

इन्द्रपाल के बयान के बाद इस मामले का दूसरा गवाह मदनगोपाल भी पलट गया। फलस्वरूप मुकद्दमा गिर गया। सरकार ने इन्द्रपाल से बदला लेने के लिए, उस पर सरकार को धोखा देने और अदालत में झूठ बोलने का और उसी के बयान के आधर पर आतिशीचक्कर कांड में हुई हत्याओं के लिए उस अकेले पर मुकद्दमा चलाया। सत्र न्यायाधीश ने उसे फांसी की सजा दे दी, परंतु षडय़ंत्र का मुकद्दमा गिर गया। केवल उन्हीं लोगों को छोटी-छोटी सजाएं हुई जिन्होंने मार से हार मानकर या सरकारी गवाह बन जाने की आशा में अपने अपरा मैजिस्ट्रेटों के सामने कबूल लिए थे। सशस्त्र राजद्रोह का मामला न बन सका। इन्द्रपाल को बचाने के लिए हाईकोर्ट में मुकद्दमा लड़ा गया। इसमें सफााई की ओर से मुख्य वकील थे, रोहतक के स्वर्गीय लाला श्यामलाल जी। श्यामलाल जी असहयोग आंदोलन में वकालत छोड़ चुके थे। इस मामले के अभियुक्तों की सहायता करने के लिए ही उन्होंनें दोबारा वकालत शुरू की। उन्हें अदालत से फीस के रूप में चौंसठ रुपए रोज मिलते थे। यह रुपया वे अभियुक्तों की आवश्यकताओं के लिए ही खर्च कर देते थे। श्यामलाल जी और सरकारी वकील ज्वालाप्रसाद इन्द्रपाल के साहस और बुद्धि की प्रशंसा करते नहीं थकते थे। बहुत जोर लगाने के बाद इन्द्रपाल की फांसी की सजा, जन्मभर काला पानी की सजा में बदल गई। उपरोक्त मामलों से इन्द्रपाल के मस्तिष्क पर जो जोर पड़ा और फिर उसके साथ पुलिस ने जो दुव्र्यवहार किया, उसके परिणामस्वरूप उसे जेल में अधरंग (पैरेलसिस) की बीमारी हो गई। कुछ दिन तो जेल वालों ने समझा कि इस आदमी के पाखंड और धूर्तता की कोई सीमा नहीं। यह बीमारी भी धोखा ही है।

उसकी परवाह नहीं की गई। फिर यह देखना आवश्यक समझा गया कि सचमुच बीमारी है तो इलाज क्या किया जाए? श्यामलाल जी इन्द्रपाल की निष्ठा और साहस से बहुत प्रभावित थे। वे इस सम्बन्ध में गांधी जी से मिले और इन्द्रपाल की प्राण रक्षा के लिए यत्न करने का अनुरोध किया। गांधी जी ने पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री सर सिकन्दर खिजरे हयात खां को इस विषय में पत्र लिखा। सरकार के बड़े से बड़े डाक्टरों ने स्वास्थ्य जांच की और परिणाम पर पहुंचे कि बीमारी विकट रूप ले चुकी है, इलाज कोई नहीं हो सकता। किसी भी समय प्राण निकल सकते हैं। बीमारी को असाध्य समझ कर इन्द्रपाल को जेल से रिहा कर दिया गया।
जिस समय इन्द्रपाल जेल से छूटा तो बैठ भी न सकता था। उसकी टांगें और बांहें टेढ़ी हो गई थी। बोल भी न सकता था। जेल जाने से चार-पांच मास पहले उसका विवाह हुआ था। उसकी पत्नी जगदीश्वरी ने उसकी सेवा और इलाज शुरू किया। हकीमों के बताए नुस्खे खिलाती और दिन-दिन भर मालिश करती रहती। यशपाल जी कहते हैं कि जब वे लाहौर में प्रैस कर्मचारियों की कांफ्रेंस के लिए गए तो इन्द्रपाल खाट पर लेटे-लेटे बातचीत करने लायक हो गया था। वही पुरानी साहसपूर्ण बेपरवाही…देखते ही चिल्ला उठा- ‘अरे, अरे लून तम्बाकू बेचने वाले का बेटा आ गया! अरी जगदीश्वरी, आटा-वाटा कुछ है तो छिपा दे, नहीं तो रोटियां खिलानी पड़ जाएगी।’ यशपाल के अनुरोध पर वह और जगदीश्वरी लखनऊ आ गए। बहुत दिन तक बिजली भाप से इलाज होता रहा। वह कुछ देर तक बैठने और लकड़ी पकड़ कर लंगड़ाकर चलने भी लगा। यशपाल ने एक मासिक पत्रिका विप्लव का प्रकाशन आरम्भ किया था। 1939 अक्तूबर में विप्लव का प्रकाशन हिन्दी और उर्दू आदि दोनों में हो रहा था। इन्द्रपाल उर्दू में अनुवाद कर पत्रकारिता भी करता जाता, परंतु कुछ ही समय काम करने से सिर चकराने लगता था। 1941 में अंग्रेज सरकार ने विप्लव से बारह हजार रुपए की जमानत मांगकर पत्र का प्रकाशन स्थगित कर दिया। इन्द्रपाल लाहौर लौट गया और कुछ पत्रकारों के सहयोग से पत्रकारिता का काम चलाने लगा।

-डा. ओपी शर्मा

सिसकती दरारों से खिसकती हुई ज़मीन

सुशील कुमार फुल्ल का ताजा उपन्यास ‘खिसकती हुई ज़मीन’ यकीनी तौर पर समय के चिथड़ों में लिपटी ऐसी हकीकत है, जो छुपाए भी नहीं छिपती। लेखक आधुनिक काल खंड के चारित्रिक क्षरण की अनेक पपडिय़ां हटाते हुए, कभी अन्ना हजारे आंदोलन, कभी लुधियाना के मजदूर संघर्ष, कभी पौंग विस्थापितों के मुद्दे, कभी किसान आंदोलन, तो कभी कोरोना काल में प्रवासी श्रमिकों के प्रति राष्ट्रीय असंवेदना के आगे दर्पण खड़े कर देते हैं। चौराहे पर खड़ा आदमी जो सोच रहा है या आक्रोश की गलियों में बहता पसीना जो कुछ बोल रहा है, उसे बड़ी ही साफगोई से फुल्ल परोस देते हैं। उपन्यास के भीतर राजनीति की पूरी शब्दावली और पाठ्यक्रम के साथ-साथ बदलते घटनाक्रम को भी विस्तार से बताने की कोशिश हुई है, ‘वास्तव में राजनीति एक व्यवसाय बन गई है। पारिवारिक व्यापार की तरह। इसमें लाभ ज्यादा है, इसलिए पूरा परिवार ही राजनीति में उतर आता है।’ पाठक महसूस कर सकते हैं कि अन्ना हजारे आंदोलन के हर न•ाारे से किसने क्या-क्या चुराया। यह आम आदमी पार्टी के उदय की सीढिय़ों से तत्कालीन केंद्र सरकार को बेडिय़ां पहनाने तक, न जाने कितने अफसानों से रूबरू कराता है। उपन्यास के बीच में ‘फाइल्स’ की तरह पन्ना दर पन्ना खुल जाता है, ‘आजकल सरकारें प्रचारवादी हो गई हैं। करना कुछ है नहीं और लोगों को सपनों के आंकड़े बेचने लगते हैं।’ उपन्यास की गहराई उसके भीतर समाज से उठाए गए पात्रों पर निर्भर करती है और यहां लेखक कई ऐसे पारदर्शी चरित्र सामने ले आता है, जिन्हें हम समय के खाके में देखकर महसूस कर सकते हैं। अन्ना आंदोलन की भूमिका में कवि-आस्तिक, प्रशासनिक अधिकारी-नरेंद्र पाल, धुड़ू बाबा-स्वदेशी आंदोलन व योग से जुड़े, जस्टिस खदेड़ी लाल, टोपी वाले बाबा और कनकलता के रूप में एक सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी, अपने साथ उपन्यास का परिदृश्य और परिवेश बुन देते हैं। समकालीन भारत के समकालीन चेहरे कहीं ‘खिसकती ज़मीन’ को जोड़ रहे हैं, तो कहीं किसी न किसी की ज़मीन को खिसकाने की ताकत जोड़ रहे हैं।

यहां पूरा देश दृष्टिगोचर होता है और अन्ना हजारे आंदोलन की प्रमुख भूमिका के बीच लेखक अपने उपन्यास को एक साथ कई संघर्षों की ज़मीन पर तपा देता है। चारों तरफ विस्थापन का दर्द और हर परिदृश्य से जुड़ती राजनीति की कोई न कोई कहानी। वक्त के थपेड़ों में उपन्यास के भीतर राजनीति के कई दौर ज़मीन जाते हैां और कहीं न कहीं पाठक कभी मतदाता, कभी आम नागरिक, कभी नेता, तो कभी आलोचक बनकर सोचता है, ‘दस्तूर तो यही है कि जब सत्ता में हो, भर लो थैलियां – फिर क्या पता समय मिले या न मिले, लेकिन यह सब है गलत। पाप का घड़ा फूटता तो है अंतत:।’ अन्ना आंदोलन कैसे राजनीतिक हुआ और फिर चुनाव की दहलीज तक पहुंच गया, इसके हर पहलू की टोह लेते लेखक पूरे उपन्यास को राजनीतिक कलेवर से पुष्ट कर देते हैं। उपन्यास की आर्थिक, सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि भी सामने आती है और इसके भीतर हम देश का हालिया सियासी चरित्र भी देख सकते हैं। उपन्यास अपने पाश्र्व में कई आवाजें, कई मुद्दे, कई विषय और संवाद के कई मंच जुटा लेता है तथा यह उर्वरता से भरे संघर्ष के डेरे लगा देता है। हम एक ही दृष्टि में दिल्ली, लुधियाना और नूरपुर की गर्माहट में खिसकती •ामीनों का वृत्तांत देख लेते हैं, तो उन फफोलों की टोह भी ले लेते हैं जो कोरोना में लुटे पिटे मजदूरों के घर लौटते पांवों को नसीब होते हैं। उपन्यास का एक बड़ा हिस्सा पौंग विस्थापन के दर्द से भरा हुआ मिलता है, जहां मुआवजे से मुरब्बे तक के सफर में राजस्थान को हरा भरा बनाते, कांगड़ा के प्रभावितों के जीवन में खड़े रेगिस्तान का वर्णन हो रहा है, ‘हां, मुआवजा तो मिला और मुरब्बे भी, लेकिन दूर राजस्थान में। ज़मीन एकदम बंजर। न कोई बस्तियां आसपास, न पानी, न कोई आबादी। पहाड़ का आदमी तो वैसे ही पागल हो जाएगा ऐसी ज़मीन पर। लुटेरे-गुंडों ने •ामीनों पर जोर जबरदस्ती कब्जे कर लिए।’ खिसकती हुई ज़मीन दरअसल कई सिसकती दरारों को पाटने का संकल्प पत्र है, फिर भी डा. सुशील कुमार फुल्ल की तल्ख टिप्पणियों से राजनीति को बार-बार फटकार मिल रही है, ‘घोषणा पत्र भी क्या बढिय़ा ची•ा है। ये वस्तुत: मछलियों को फांसने के लिए बेट का काम करते हैं। इस बार तो प्रचार तंत्र में भी गिरावट आई है। अभी और आएगी। मूल्य-वूल्य सब भूल गए। बस वोट लूटने के लिए चरित्र हनन का कोई अवसर नहीं छोड़ेंगे।’                                                        -निर्मल असो

उपन्यास : खिसकती हुई ज़मीन
लेखक : सुशील कुमार फुल्ल
प्रकाशक : इंद्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली
कीमत : 595 रुपए

पुस्तक समीक्षा : गांव-शहर की वास्तविकताएं बताता उपन्यास

हिमाचल प्रदेश स्कूल शिक्षा बोर्ड के सेवानिवृत्त सचिव प्रभात शर्मा (एचएएस) का उपन्यास ‘शीशम का पेड़’ प्रकाशित हुआ है। सामाजिक विषय लेकर रचा गया यह उपन्यास प्रभात शर्मा ने खुद प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 250 रुपए है। इस उपन्यास को गांव-शहर की वास्तविकता व जमीन-जायदाद के झगड़ों से जोड़ा गया है। इसका कथानक वास्तविकता से बिल्कुल जुड़ा हुआ है। हमारे देश में आज की पीढ़ी अपने समाज, प्रदेश व देश से धीरे-धीरे दूर जा रही है। आज के युवा भारतीय संस्कृति एवं संस्कारों को छोडक़र भौतिकतावाद की संस्कृति तथा पाश्चात्य रीति-रिवाजों को बिना सोचे-समझे आत्मसात कर रहे हैं।

इसके विपरीत पाश्चात्य देशों के लोग भारतीय संस्कारों तथा संस्कृति को आत्मसात कर रहे हैं। वे भारत में आकर यहां के धर्म एवं शांति की शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। वे भारतीय धर्म गुरुओं से यहां की संस्कृति व संस्कारों का आचरण सीखकर अपना जीवन सुखमय बना रहे हैं। अनेक परिस्थितियों के कारण आजकल अधिकतर मां-बाप गांव में या शहर में अर्थात अपनी जन्मभूमि में अकेले ही रह रहे हैं। जब वे अकेलापन महसूस करते हैं तथा स्वयं को संभाल पाने में असमर्थ हो जाते हैं, ऐसी परिस्थितियों में वे वृद्धाश्रम का सहारा लेने को विवश हो जाते हैं। यह उपन्यास इन्हीं परिस्थितियों में सृजित हुआ है। आज के बुजुर्गों की जब नौकरी से सेवानिवृत्ति होती है तो वे अपनी जन्मभूमि पर आकर अपने पुश्तैनी मकान में रहने लगते हैं। वे अपनी पुश्तैनी भूमि की देखभाल करने लग जाते हैं। कुछ दिन तो गांव वाले उनका काफी आदर-सत्कार करते हैं, परंतु जब जमीन की ओर देखकर पुराने जमीन के बन्ने (सीमा चिन्ह) की जांच-पड़ताल करने लगते हैं तो गांव वालों को वे बुरे लगने लग पड़ते हैं। इन्हीं उतार-चढ़ावों को रचनात्मक आकार देते हुए यह उपन्यास रचा गया है। इसमें राजस्व संबंधी कानूनी जानकारी होने के कारण पाठकों के लिए 100 पृष्ठों का यह उपन्यास लाभप्रद सिद्ध होगा, ऐसी आशा है।

-फीचर डेस्क