नई सरकार, नए आईने-14

हिमाचल में विकास की सियासी अवधारणा आज तक कुशल नीतियों का साथ नहीं दे पाई, नतीजतन अड़चनों का दुराभाव कृत्रिम तौर पर कई रास्तों को बाधित कर रहा है। प्रदेश के असंतुलन में अनेक बहाने गढ़े जाते हैं, जिनमें सबसे अहम है वन विभाग से अनापत्ति लेने की संदिग्ध प्रक्रिया। यहां दो उदाहरण दिए जा सकते हैं। रंगस के पास मेडिकल कालेज की इमारत गगनचुंबी होकर भी न तो फोरेस्ट की अड़चनों में आती है और न ही भूगर्भीय सर्वेक्षण की जरूरत महसूस की जाती है। देहरा में केंद्रीय विश्वविद्यालय को आबंटित जमीन न तो वनापत्तियों में उलझती है और न ही पौंग वेट लैंड के अंतरराष्ट्रीय मानदंडों में फंसती है, जबकि इसी विश्वविद्यालय का जदरांगल कैंपस वन संरक्षण अधिनियम का आज तक अपराधी माना जा रहा है और भूगर्भीय आधार पर ज्योलिजीकल सर्वे आफ इंडिया के कोलकाता कार्यालय में माथा रगड़ रहा है। प्रदेश की दर्जनों सडक़ें, बस स्टैंड, स्कूल, श्मशानघाट व इस तरह के कई कार्यालय वन अधिनियम के चक्कर काटते रहते हैं, तो असली कसूरवार राजनीति को क्यों न मानें। आश्चर्य यह कि सबसे बड़ा महकमा वनों पर कुंडली मार प्रदेश की प्रगति के लिए नासूर बना है, जबकि जंगल की वजह से सामाजिक व आर्थिक रूप से हिमाचल को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। आज अगर प्रदेश में बंदरों का आतंक जीना हराम कर रहा है, तो बंदर जंगल से बाहर क्यों आए। जाहिर है वन महोत्सव मनाते विभाग ने पिछले पांच दशकों में ऐसा पौधारोपण किया जो वन्य जीवन के माफिक नहीं रहा।

दरअसल चीड़ के पौधों को इसके सरवाइबल रेट के कारण इनती प्राथमिकता मिली कि इस प्रजाति के पौधों की पैदावार ने कई स्थानीय पौधों व हर्बल प्लांट्स को समाप्त ही कर दिया। जंगल में पाए जाने वाले ऐसे पौधे नष्ट हो गए, जिनके आधार पर बंदरों के अलावा अनेक पशु-पक्षी अपना गुजारा करते थे। इतना ही नहीं चौड़े पत्ते वाले पौधों, झाडिय़ों और तरह-तरह की घास के कारण पालतू पशु भी जंगल को चरागाहों की तरह इस्तेमाल करते थे और जिसकी वजह से इनकी प्रवृत्ति में आवारगी नहीं आती थी। जंगलों में घटते खाद्य पदार्थों के कारण नील गाय जैसी प्रजातियां अब सडक़ों पर आकर मानवीय जीवन को संकट में डाल रही हैं। चीड़ के पत्तों के कारण हिमाचल का ग्रीष्म काल जंगलों की आग से दहल रहा है। इससे मानव बस्तियों तथा पर्यटक सीजन पर प्रतिकूल प्रभाव पडऩे लगा है। ऐसे में उत्तराखंड की तर्ज पर चीड़ के जंगलों को उखाडक़र मिश्रित प्रजातियों के पौधे उगाने की दिशा में तीव्रता से प्रयास करने होंगे। हिमाचल के जंगलों में औषधीय जड़ी-बूटियों, फलों, खाद्य सामग्री के उत्पादन के लिए विशेष पहल की जरूरत है, जबकि वन नीति के तहत कई तरह की खेती को समाहित करना होगा। मसलन हिमाचल की वन भूमि में चाय की खेती, कॉफी की खेती, हर्बल खेती व फूलों की खेती अगर की जाए, तो पर्यावरणीय दृष्टि से भूमि के बेहतर इस्तेमाल के साथ-साथ आर्थिकी में हो रहे नुकसान की भरपाई हो पाएगी। वन विभाग के पारंपरिक उत्तरदायित्व में जीवन की राहें, आर्थिकी का विकास, प्रादेशिक विकास से समन्वय, जल संसाधनों का संरक्षण, वन्य प्राणियों के प्रति जिम्मेदारी तथा सामुदायिक रिश्तों का जुड़ाव अपिरहार्य रूप से संलग्र करना होगा।

आश्चर्य यह कि जिस भाखड़ा-पौंग व अन्य कृत्रिम जलाशयों के कारण हिमाचल को हजारों एकड़ खेती योग्य जमीन खोनी पड़ी, उन झीलों में पर्यटन गतिविधियों को इसलिए रोक लगाई जा रही है क्योंकि इससे प्रवासी पक्षियों की गतिविधियां बाधित होती हैं। वन्य प्राणी अधिनियम की अनावश्यक कठोरता के बजाय समन्वय चाहिए। आखिर प्रदेश की कुल जमीन का सत्तर फीसदी हिस्सा वनों के अधीन करके हम शेष बचे तीस फीसदी हिस्से में कैसे आत्मनिर्भर बन सकते हैं। इसलिए आवश्यक यह है कि वन भूमि की अधिकतम सीमा 50 फीसदी की जाए ताकि बीस प्रतिशत भूमि को वापस लेकर हिमाचल पर्यटन, वन खेती, सामुदायिक खेती तथा सामुदायिक विकास की जरूरतों में इस्तेमाल कर सके। आज हिमाचल के हर शहर को वनों से सामुदायिक मैदानों, पार्कों, पार्किंग, रज्जु मार्गों व लैंड बैंक के लिए जमीन चाहिए। गांवों को जंगल से जीवन का नया आधार चाहिए ताकि जंगल की आग के बजाय पशुओं को आहार और सामुदायिक गतिविधियों को आसरा मिल सके। जिस दिन वन विभाग के तमाम कार्यालयों व अवासीय बस्तियों को शहरों व कस्बों से हटा कर जंगल भेज दिया जाएगा, वन नीतियों के तर्क प्रादेशिक प्रगति व सामुदायिक संतुलन के अर्थ समझ जाएंगे, वरना हिमाचल की सारी उलझनें जंगल-जंगल खेलती रहेंगी।