नई सरकार, नए आईने-15

हिमाचल की भौगोलिक परिस्थितियां, राजनीतिक परिवेश के मुहाने पर आकर जब कभी बदलती हैं, सारे गणित बदल जाते हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में पुनर्सीमांकन की आहट में अगले कुछ सालों के सियासी गणित की अदला-बदली मुमकिन है। अगला पुनर्सीमांकन किस कद्र करवटें लेता है और सीटों के आरक्षण में कितना फेरबदल करता है, इसकी आरजू में हर विधानसभा क्षेत्र की जनगणना और आबादी की रफ्तार का ताल्लुक रहेगा। खास तौर पर जब से हाटी समुदाय को जनजातीय दर्जा मिला है, इससे जुड़ी आरक्षण की संभावनाओं को हिमाचल के भूगोल से जोडऩे की स्वाभाविक इच्छा बलवती हुई है। पिछले पुनर्सीमांकन को ही लें, तो राजनीति ने कांगड़ा से एक पूरा विधानसभा क्षेत्र खींच कर कुल्लू के आकार में जोड़ दिया था। कायदे से हिमाचल में न केवल नए विधानसभा क्षेत्रों की रूपरेखा बनती रही है, बल्कि बार-बार नए जिलों की आवाज भी सियासी सूरमाओं की ंमूंछें खड़ी करती रही हैं। कभी देहरा के नाम पर रमेश धवाला ने राजनीति का जाम पीया था, तो इस बार महेंद्र सिंह और राकेश पठानिया की सियासत भी नए जिलों के चूल्हे पर चढ़ती रही है। बहरहाल देखना यह होगा कि हिमाचल के विधानसभा क्षेत्रों की संख्या में कोई इजाफा होता है या बढ़ते अनुसूचित जनजातीय समुदाय को देखते हुए प्रदेश में लोकसभा की एक अतिरिक्त सीट में इजाफा करते हुए इसे ट्राइबल का दर्जा मिलता है ।

भौगोलिक राजनीति के आलंबरदार शिमला, कांगड़ा और शिमला की भुजाएं काट कर अपनी क्षत्रप शैली में विस्तार करना चाहते हैं। जिलों का पुनर्गठन या नए जिलों के गठन के तर्क अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन राज्य की भौगोलिक संरचना में संतुलन लाने की कोशिश तो हो ही सकती है। यानी वर्तमान स्थिति में कुल 68 विधानसभा क्षेत्रों में से लाहुल-स्पीति और किन्नौर जिलों की एक-एक सीट को इकाई मान लें, तो शेष 66 विधानसभाओं में बराबर यानी छह क्षेत्रों के हिसाब से ग्यारह जिले बन जाते हैं। इस तरह बराबरी के तर्क पर एक अन्य जिला जोड़ा जा सकता है, लेकिन क्या इसकी सांस्कृतिक, सामाजिक व राजनीतिक पृष्ठभूमि खींचना इतना आसान है। दूसरा प्रश्न हिमाचल के राजनीतिक इतिहास से जुड़ता है। हिमाचल में एक पुराना मानचित्र जब पंजाब से अलग हुए इलाकों के मिलने से बड़े आकार में आया, तो इसका राजनीतिक संतुलन कांगड़ा, मंडी व शिमला जैसे बड़े जिलों पर निर्भर हो गया। इसी कारण हिमाचल में पूर्वोत्तर राज्यों की तरह सियासी अनिश्चितता नहीं फैली। सियासी तौर पर प्रेम कुमार धूमल का मुख्यमंत्री बनना इसी संतुलन को प्रमाणित करता रहा, हालांकि इस दौर में पांच नए जिलों की घंटियां बजती रहीं। आर्थिक, प्रशासनिक व सांस्कृतिक रूप से हिमाचल के वर्तमान जिलों को केवल कनेक्टिविटी व संसाधनों के आबंटन में न्याय चाहिए। भले ही पंद्रह सीटों के कारण हिमाचल की सत्ता में कांगड़ा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है, लेकिन इसके दम पर राज्य का नेतृत्व नहीं मिला। हिमाचल में अक्सर पनपते क्षेत्रवाद की असली वजह मुख्यमंत्री के पद के साथ जुड़ी असीम आर्थिक शक्तियां हैं। कमोबेश हर मुख्यमंत्री अपनी सत्ता के पदक बांटते-बांटते कुछ पसंदीदा विधानसभा क्षेत्रों पर ही मेहरबान होकर रह जाता है। इसलिए सरकारों का गठन क्षेत्रीय साझेदारी के आधार पर होना चाहिए।

विकास का वर्तमान मॉडल राजनीति के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहा है, अत: हर विधानसभा क्षेत्र और जिलावार ढांचे में ईमानदारी से योजनाओं-परियोजनाओं का निरूपण होना चाहिए। प्रदेश को अगली छलांग लगाने के सृजनात्मक माहौल, निवेश मैत्री संस्कार तथा नीतियों-नियमों में पारदर्शिता चाहिए। नए जिलों के बजाय निवेश केंद्र, औद्योगिक परिसर, आईटी पार्क, आवासीय बस्तियां व उपग्रह शहरों को बसाने की जरूरत है। एक नए जिले के गठन पर हर साल हजार करोड़ का व्यय बढ़ाने से अच्छा है इस धन से पर्यटन संभावनाओं को गांव-गांव तक सृदृढ़ किया जाए और तमाम विस्थापितों के पुनर्वास पर अधिक से अधिक उदारता से न्याय किया जाए। हिमाचल की समग्रता में सोचें तो वर्तमान शहरों के ढांचे, परिवहन सेवाओं, यात्री सुविधाओं, मंदिरों की अधोसंरचना तथा प्रादेशिक कनेक्टिविटी पर अधिकतम संसाधनों की आवश्यकता को हम सियासी रेवडिय़ों में जाया नहीं कर सकते।