क्या ये अच्छे दिन हैं?

बंधु, हम तो बकाया देने के लिए तत्पर हैं, लेकिन पिछली सरकार ‘अन्धा बांटे रेवडिय़ां मुड़-मुड़ अपनों को दे’ के अन्दाज़ में खजाना खाली कर गयी। हमने गद्दी के साथ यह खाली खजाना संभालने की विरासत पायी थी। हम अभी गद्दी सुरक्षित करने में लगे हैं, पहले अपने लिए, फिर अपने नाती-पोतों के लिए। खाली खजाने की विरासत हमने केन्द्र में बैठी आला सरकार को सौंपने की कोशिश की थी, उन्होंने हाथ खड़े कर दिये। हुजूर बन्दर की बला कौनसा तबेला अपने सिर लेने के लिए तैयार होगा? और वह भी ऐसा तबेला जो हमारे सौतेले बाप का हो, हमारी पार्टी अलग, उनकी पार्टी अलग। फिर विचारधारा भी तो अलग-अलग है। चुनाव परिणाम निर्णायक थे, इसलिए मरम्मत करके कोई नया निम्नतम सांझा कार्यक्रम भी नहीं बनाया जा सका कि वह रेते लीजिये कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा। अभी तो नया कुनबा बनाने की ज़रूरत नहीं पड़ी, इसलिए ईंट की दीवार में रोड़े कैसे चिन देते? तब बहुत से राजनैतिक अदावल के आरोप इन केन्द्र बंधुओं पर लगा कर, राज्य के मसीहा अपना दुखड़ा लेकर जनता के बीच जाने की बात कहने लगे, लेकिन बातों से खाली खजाने का पेट नहीं भरता। फिर ज़रूरी भुगतान कैसे कर दिये जायें? नौजवानों के लिए भी बोरवैल बन्द नहीं हुए, दिशाहीनता के अन्धकूप खुल गये। इन अन्धकूपों से कोई आवाज़ नहीं उभरती कि वे कैसा महसूस कर रहे हैं? कभी-कभी उनमें से कोई झुण्ड बाहर झांकता है, और वैध-अवैध कबूतरबाजों के टूटे हुए डैनों पर सवार होकर सात समुद्र पार जाने की कोशिश करता है। कुछ पता नहीं चलता कि इस देश के निरीह लोगों का यहां बोरवैल में गिर कर या अन्धकूप में कैद हो जीना बेहतर है या विदेशियों की बेगानी धरती पर किसी नये अन्धकूप में कैद होकर सुखी हो जाने का बहाना करना। लेकिन उनके सवाल का जवाब तो कहीं नहीं मिलता, न उस देसी बोरवैल और अन्धकूप में और न ही विदेशी धरती के बिना दरवाज़ों के कारागार में कि आप यहां गिर कर कैसा महसूस कर रहे हैं? अब भला कैसे कह दें कि वे अच्छा महसूस नहीं कर रहे? जवाब में सच बोलना चाहे तो उन्हें दादी मां से सुनीं नकटों का स्वर्ग वाली वह कहानी याद आ जाती है कि उनके गांव में एक पहुंचा हुआ मसीहा या सिद्ध पुरुष तशरीफ ले आया। उसने गांव में मुनादी करवा दी कि जो व्यक्ति उससे नाक कटवा लेगा, वह उसे स्वर्ग दिखा देगा।

उसके सामने स्वर्ग देखने के इच्छुक लोगों की कतार लग गयी। पहले लोग नाक कटवा लेते, फिर मसीहा उसे अपने टैंट पीछे ले जाकर कहते कि ‘देखो भई, अब तुम्हारी नाक तो कट गयी, अगर बाहर जाकर कहोगे कि तुम्हें स्वर्ग भी हमने नहीं दिखाया, तो लोग तुम्हारा मज़ाक उड़ायेंगे, कि देखो कितना मूर्ख है। नाक कटवा ली और स्वर्ग भी नहीं देख सका।’ अब नकटा मूर्ख बनने के बावजूद भला ऐसा शीर्षक कौन पसन्द करता है कि ‘स्वर्ग देखा नहीं और अच्छा खासा मूर्ख बन गया।’ इसलिए हर नकटा जो टैंट से निकलता, यही चिल्लाता ‘लो जी मैंने तो स्वर्ग देख लिया।’ अब जब चिल्लाहट जारी रही तो नकटा होने वालों की कतार कैसे कम हो जाती? इसलिए कतार जारी रही और मसीहा नकटों के लिए अपने टैंट में स्वर्ग दिखाने का वायस्कोप चलाते रहे। उधर, उनके देश में भी ज्यों-ज्यों भूख, बेकारी और बीमारी बढ़ती गयी, उतना ही उनका देश भी खुशहाली के सूचकांक की एक और पायदान चढ़ गया। अवनति के दुर्भाग्य से पीडि़त जनता चिल्लाती है कि देखो हमारे लिए अच्छे दिन आ गये। देखते नहीं हो कि अंतर्राष्ट्रीय फलक पर हमारे देश की साख कितनी ऊंची हो गई। जी हां, ज्यों-ज्यों यह साख बढ़ती गयी, त्यों-त्यों विदेशी सैलानियों ने इस देश का रुख करना बंद कर दिया। सवा अरब से अधिक लोग दुनिया में सबसे आगे होने का इंतज़ार कर रहे हैं। उन्होंने मान लिया कि अच्छे दिन आने वाले हैं। नहीं मानते तो क्या करते भला?

सुरेश सेठ

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