सूचना सेंसरशिप का मसविदा

बेशक दुष्प्रचार, गलत सूचना या झूठी ख़बर, भ्रामक रपटें और कथित फेक न्यूज़ आदि आधुनिक लोकतांत्रिक समाज के लिए गंभीर खतरा हैं। डिजिटल दौर में यह खतरा लगातार बढ़ता ही जा रहा है, क्योंकि आम आदमी की ऐसी सूचनाओं तक पहुंच बेहद आसान हो चुकी है। भारत सरकार का सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय इस संदर्भ में संशोधनों का जो मसविदा ला रहा है, वह हमारे ढांचे की सेंसरशिप और अनधिकृत हस्तक्षेप का प्रयास है। संविधान के अनुच्छेद 19 में अभिव्यक्ति की आज़ादी, बोलने-लिखने का जो मौलिक अधिकार दिया गया है, उसका अतिक्रमण नहीं होना चाहिए और न ही दमन होना चाहिए। यह संवैधानिक अधिकार लोकतंत्र की बुनियाद और प्रथम अभिव्यक्ति है।

बीते दिनों सूचना-प्रसारण मंत्रालय के तहत प्रेस सूचना ब्यूरो (पीआईबी) ने खासकर टीवी चैनलों के लिए कुछ सख्त हिदायतें जारी की थीं कि ख़बरें और विमर्श, विश्लेषण आदि भडक़ाऊ, सांप्रदायिक, धर्मवादी, विभाजक, उकसाऊ, देश-विरोधी, देश की छवि को धूमिल करने वाले और अति सनसनीखेज नहीं होने चाहिए। हमने ये निर्देश सारांश में दिए हैं। अलबत्ता उनकी शब्दावली विस्तृत है। ये हिदायतें देते हुए दंड के सख्त प्रावधान सामने नहीं आए, क्योंकि चैनल अपने कार्यक्रम पेश करने में कमोबेश ‘निरंकुश’ रहे हैं और आज भी हैं। यह आधुनिक मीडिया की अराजकता का जि़ंदा उदाहरण है। पीआईबी ने अख़बारी मीडिया को भी निर्देशों की परिधि में रखा था। अब प्रस्तावित संशोधन मसविदे में पीआईबी या किसी अन्य सरकारी एजेंसी को ऐसे अधिकार देने का प्रस्ताव है कि वे मीडिया को आदेश दे सकेंगी। यानी किसी सोशल मीडिया या डिजिटल मध्यवर्ती संस्था के प्लेटफॉर्म पर सरकारी एजेंसियों को कोई पोस्ट फर्जी या आपत्तिजनक लगे अथवा ‘फेक न्यूज़’ हो, तो एजेंसी उसे हटाने या प्रतिबंधित करने का आदेश दे सकेगी। क्या ऐसा होना चाहिए? क्या यही लोकतांत्रिक स्वायत्तता रहेगी, क्योंकि सरकारी एजेंसियों के पूर्वाग्रह तो होते हैं, लेकिन किसी ख़बर या विश्लेषण पर सवाल करने का तटस्थ, मौलिक, बौद्धिक आकलन नहीं होता। यदि विश्लेषण पर ही सरकार सवाल करेगी, तो फिर अभिव्यक्ति और बोलने-लिखने की मौलिक आज़ादी का क्या होगा? यदि वह आज़ादी नहीं है, तो लोकतंत्र के मायने क्या हैं? खुद पीआईबी दुष्प्रचार का झंडा लहराता रहा है।

ऐसी सूचनाओं को ‘गलती’ स्वीकार कर वापस भी लेता रहा है। कई राज्य सरकारों, पुलिस बल और गुप्तचर ब्यूरो के कई नोटिसों से जुड़ी रपटें और ख़बरें इसका ज्वलंत उदाहरण हैं। सबसे बढक़र पीआईबी या कोई अन्य एजेंसी ‘सरकारी’ हैं और उनकी भूमिकाएं, संविधान के मुताबिक, तय हैं। ऐसी एजेंसियां ‘संपादक’ कैसे हो सकती हैं? संविधान और सर्वोच्च अदालत के मुताबिक, सरकारी एजेंसियों को ऐसे आदेश देने का अधिकार नहीं है। दरअसल पीआईबी किसी भी विषय ख़बर, पोस्ट को ‘फर्जी और फेक’ करार देता रहा है, लेकिन आईटी मंत्रालय का संशोधन मसविदा इसके पार जाता लग रहा है। यदि यह मसविदा पारित किया जाता है, तो यह सरकार को अनुमति देगा कि किसी भी डिजिटल संस्था, घटक, प्लेटफॉर्म आदि को आदेश दिया जा सकेगा कि फर्जी पोस्ट को हटाएं। उसके लिए अपील, निवारण, सुधार या समीक्षा का कोई भी मंच नहीं होगा। यह अभिव्यक्ति की आज़ादी की कुचलन ही है। जो संशोधन मसविदे को तैयार कर रहे हैं और जो इसे लागू करना चाहते हैं, वे एकबारगी सोच लें कि संशोधन के दायरे क्या होने चाहिए।