संवेदनशील साहित्य सर्जक निर्मल वर्मा

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

अतिथि संपादक, डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -46

विमर्श के बिंदु
1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
7. हिमाचल में रचित अंग्रेजी साहित्य
8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
10. हिमाचल में रचित पंजाबी साहित्य
11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

डा. हेमराज कौशिक, मो.-9418010646

भारतीय साहित्य जगत में निर्मल वर्मा का महत्वपूर्ण स्थान है। उनका कहानीकार जितना सशक्त और जीवंत है, उतना ही उनका उपन्यासकार और गद्यकार भी। एक संस्मरण लेखक और यात्रा वृतांत लेखक के रूप में वे जिस आत्मिक संबंध के साथ पाठक को बांधते हैं, वह कौशल विरले लेखकों में ही विद्यमान है। उनके निबंध एक चिंतक-मनीषी की सूक्ष्म, गहन और परिपक्व सोच के परिचायक हैं। ‘डायरी’ जैसी विधा में भी उनके सर्जक व्यक्तित्व और एक साधक रचनाकार की चिंतन मनन की अनवरत यात्रा का परिचय मिलता है। निर्मल वर्मा का जन्म 3 अप्रैल सन् 1929 को हिमाचल प्रदेश के मनोरम पर्यटन एवं ऐतिहासिक स्थल शिमला में हुआ। उनका बाल्यकाल पहाड़ों में ही व्यतीत हुआ। इसलिए पहाड़ की स्मृतियां उनकी रचनाओं में सदैव संपृक्त रही हैं।

पहाड़ों का सौंदर्य ही नहीं पहाड़ों की नीरवता, सन्नाटा और खामोशी उन्हें अत्यंत प्रिय रही हैं। उनकी रचनाओं में मौन का जो रूप रिश्तों में विद्यमान है, उसके संबंध में वे कहते हैं, ‘मैं यह सोचता हूं कि यह संबंध काफी गहरा रहा होगा, क्योंकि हमारी जो शहरी संस्कृति है उसमें पहाड़ों का महत्व केवल इसलिए नहीं है कि वहां रूमानी या प्राकृतिक सौंदर्य है। बहुत कम लोग यह महसूस करते हैं कि आज भी हमारे पहाड़ों पर एक ऐसी खामोशी है जो हमारे शहरों में नहीं है और जिस व्यक्ति ने अपने जीवन के कई वर्ष पहाड़ों में गुज़ारे हों, वह इस खामोशी को केवल शब्द का अभाव नहीं मानता बल्कि उसे जीने के एक ‘पॉजिटिव’ विस्तार के रूप में भी स्वीकार करता है। हम समझते हैं कि खा़मोशी सिर्फ किसी चीज़ की अनुपस्थिति है लेकिन पहाड़ों पर अगर आप वर्षों रहे हों तो यह जीने की संपूर्ण शैली का विस्तार बन जाती है।’ निर्मल वर्मा को पढऩे के लिए प्रारंभ से ही अनुकूल पारिवारिक परिवेश मिला। पढ़ाई के प्रति रुचि जगाने में उनके दादा, भाई रामकुमार और बड़ी बहन ने महत्वपूर्ण योग दिया। उनकी प्रारंभिक शिक्षा बटलर स्कूल, शिमला में संपन्न हुई। वे विद्यालय में अध्ययन करते हुए सृजन कर्म के प्रति उन्मुख हो गए थे, किंतु व्यवस्थित रूप में उन्होंने पहली कहानी का सृजन उस समय किया जब वे सेंट स्टीफेंस कॉलेज में पढ़ते थे। इस समय वे इतिहास में एमए कर रहे थे। उसके बाद पहली कहानी किसी अच्छी पत्रिका में प्रकाशित हुई, वह कहानी थी जो भैरवी प्रसाद गुप्त की ‘कहानी’ पत्रिका में 1952 में प्रकाशित हुई जिसे वे इलाहाबाद से निकालते थे। ‘कल्पना’ में 1954 में बद्री विशाल पित्ती ने उनकी दूसरी कहानी ‘रिश्ते’ प्रकाशित की।

इसके बाद कहानी सृजन के प्रति रुचि का परिष्कार हुआ और निरंतर साहित्य सृजन में लीन रहे। परिंदे, जलती झाड़ी, पिछली गर्मियों में, बीच बहस में, कव्वे और काला पानी और सूखा तथा अन्य कहानियां, छह संग्रह प्रकाशित हैं। उनके पांच उपन्यास वे दिन, लाल टीन की छत, एक चिथड़ा सुख, रात का रिपोर्टर और अंतिम अरण्य प्रकाशित हैं। उनके कथा साहित्य में संबंधों के अकेलेपन, अजनबीपन, प्रेम संबंधों के स्पंदन की अनुभूति होती है। वे आपसी रिश्तों को जीने और उनके बीच में होने वाली गहन अनुभूतियों का स्पर्श करते हैं। वह अपने पात्रों के माध्यम से रिश्तों को जीते हैं और उनकी गहन संवेदनाओं को अनुभूति और विचार के स्तर पर लाकर मूर्तिमान करते हैं।

उनके पात्र अकेले और अंतर्मुखी होकर रिश्तों के सुख दुख को सहन करते हैं। उनके कथा साहित्य को पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि वे बिल्कुल नए वस्तु जगत से साक्षात्कार करा रहे हैं और मानवीय रिश्तों के नए आयाम विवृत कर रहे हैं। उन्होंने स्थूल सामाजिक यथार्थ या घटनाओं को कथावस्तु का प्रतिपाद्य नहीं बनाया अपितु समाज में निरंतर अकेले होते जा रहे व्यक्ति के अंतर्मन की पीड़ा और हाहाकार को पकडऩे का प्रयास किया है। कलाकार और साहित्य सर्जक का व्यक्तित्व उसके कृतित्व में किसी न किसी रूप में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में प्रक्षेपित होता है। निर्मल वर्मा के साहित्य सृजन में उनके जीवन के अनुभव, शैशव कालीन स्मृतियां, उनका परिवेश और परिस्थितियां अनायास आई हैं। ‘लाल टीन की छत’ में काया के चरित्र में निर्मल वर्मा का व्यक्तित्व कई जगह झलकता है। इस उपन्यास में पहाड़ी शहर की सर्दियों का सूनापन है। इसके साथ निर्मल वर्मा की शैशव कालीन स्मृतियां जुड़ी हुई हैं। उनके पिता अंग्रेजों के जमाने में सरकारी अफसर थे। उन्हें शिमला और दिल्ली में रहना पड़ता था, जिसके फलस्वरूप उन्हें शिमला की सर्दियों का सूनापन अनुभव करने का अवसर मिला जो इस उपन्यास में प्रकट हुआ है। काली के मंदिर का उल्लेख, काया और उसके छोटे भाई का वहां जाना निर्मल वर्मा की शैशव कालीन व्यक्तित्व से जुड़ी स्मृतियां हैं जो उपन्यास में आई हैं।

निर्मल वर्मा के माता-पिता और अपने बच्चों के साथ शिमला में कैथू में स्थित भज्जी हाउस में रहते थे। निर्मल वर्मा और उनकी बड़ी बहन और शिमला स्थित मकान से कालीबाड़ी मंदिर में जाते थे। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने यह व्यक्त किया है, ‘काली मंदिर शिमला के बहुत ऊंचाई पर था लेकिन हम हर शाम वहां जाते थे। उस मंदिर का वातावरण शांत था, सर्दियों की शामों में बिल्कुल उजाड़। हम उसकी चौड़ी परिक्रमा में चोर चोर छुपा छुपाई खेला करते थे और हमारी बहन वहां बैठी रहती थीं, वह हमारी शाम का नियम बन गया था।’ ‘लाल टीन की छत’ निर्मल वर्मा की सन् 1974 में प्रकाशित औपन्यासिक कृति है। इस उपन्यास को सन् 1970 से 1974 के मध्य चार वर्षों में लेखक ने कभी लंदन, कभी दिल्ली, कभी शिमला में लिखा। प्रस्तुत कृति में उपन्यासकार ने एक बालिका के अंतर्मन का मनोवैज्ञानिक धरातल पर चित्रण किया है। इस उपन्यास में एक ऐसी लडक़ी की गाथा है जो अपने छोटे भाई के साथ पहाड़ी शहर शिमला में सर्दी की लंबी सूनी छुट्टियों को व्यतीत करती है।

पहाड़ी शहर के उस सूनेपन और अकेलेपन में वह अधिकांश समय निजी स्मृति लोक में विचरण करती रहती है। वह वय: संधिकाल की दहलीज पर खड़ी है और उसका बाल्यकाल पीछे छूट चुका है। उसके मन में विभिन्न प्रकार की जिज्ञासाएं जागृत होती हैं और अपनी देह में भी ‘कुछ होना’ अनुभव करने लगती है। निर्मल वर्मा ने इस उपन्यास को उम्र के एक खास खंड पर केंद्रित किया है। दो-तीन साल का बहता समय बचपन के अंतिम कगार से किशोरावस्था के रूखे पाठ पर बहता समय जहां पहाड़ों के अलावा कुछ भी स्थिर नहीं है। ‘लाल टीन की छत’ में काया के अतिरिक्त कई पात्र हैं। लामा, छोटे नथ वाली औरत, मंगतू, बीरन, बुआ, भोलू, चाचा और मां। इन सभी चरित्रों में काया के सर्वाधिक निकट चरित्र लामा है और छोटे काया के साथ छाया की भांति साथ-साथ हैं। उसे काया के अकेलेपन का एहसास है। प्रस्तुत उपन्यास की कथा सर्दियों की लंबी छुट्टियों में कुछ माह की है, लेकिन कथा के मध्य में ऐसे प्रकरण और संदर्भ स्वाभाविक रूप में अवतरित होते हैं जो काया को अतीत की स्मृतियों में भटकाते हैं। जब छह महीने पश्चात गर्मियां प्रारंभ होने लगती हैं तो लोग लौटने लगते हैं और वह वहीं बरामदे में बैठी दिखाई देती है, एक हल्की-सी विजय मुस्कान उसके चेहरे पर खिल उठती है।

निर्मल वर्मा का साहित्यिक योगदान

काया पहाड़ी शहर में छोटे भाई के साथ रहती है। किशोर वय की काया अपने इर्द-गिर्द स्मृतियों का एक जाल बुनती है। बचपन और यौवन की दहलीज पर काया का वय: संधि काल है। काया और छोटे के इर्द-गिर्द कथा वृत में निर्मित है। काया उपन्यास का केंद्रीय चरित्र है। अपने एक साक्षात्कार में निर्मल वर्मा ध्रुव शुक्ल से कहते हैं, ‘काया ही एक ऐसा चरित्र है जो किसी एक खास लडक़ी को लेकर नहीं रचा गया, बल्कि अगर मैं यह कहूं कि काया मेरे बचपन के सब स्मृति अंशों का एक पूंजीभूत चरित्र है तो यह ज्य़ादा सही होगा। काया मेरे लिए एक रूपकात्मक अभिव्यक्ति रही है। बचपन के उन वर्षों के बदहवास और विक्षिप्त किस्म के अकेलेपन को, जो हम हर बरस शिमला में बिताते थे। लिखने की प्रक्रिया में ‘लाल टीन की छत’ ही एक ऐसा उपन्यास है जिसको मैंने उम्र के खास खंड पर फोकस करने की कोशिश की है। दो-तीन साल का बहता समय, बचपन के अंतिम कगार से किशोरावस्था के रूखे पाट पर बहता समय, जहां पहाड़ों के अलावा कुछ भी स्थिर नहीं है।’ मनोवैज्ञानिक धरातल पर इस थीम की प्रमुख पात्र काया है। वह अपने अनुज ‘छोटे’ के साथ एकांत मकान में रहती है। पहाड़ी शहर की सुनसान रातों में वह अपनी सांसों को रोक के दरवाज़े की आहट सुनते रहते हैं। रात्रि के एकांत क्षणों में वे अपने अतीत को पुनर्जीवित करते हैं। बड़े मकान में कहीं दरवाजा खटकता है तो कभी छत हिलती रहती है।

उन सबके बीच वे अपनी उम्मीद को भी पिरोते रहते, अपने समय से दूसरे समय में झांकता, जो बीत चुका था, लेकिन जिसे वह हर रात पुनर्जीवित करते थे। उनके बीच ‘कुछ नहीं’ का संसार फैला था और वहां भी कुछ हो सकता था। इसलिए उनकी उम्मीद उतनी असीम थी, जितना उसका आतंक… वे उस एकांत में कभी बहते जल की आवाज़ सुनते हैं, किंतु काया इसे सुनने में भी कहीं दूर चले जाती है। वह आंखें मूंदकर ‘छोटे’ से बहुत दूर जाकर उन चीजों के बारे में अधिक सोचती है जो नहीं है। परंतु काया कहती है कौन नहीं है? अगर कुछ नहीं है तो तुम यहां क्यों बैठे हो? वह वास्तव में प्रत्येक रात्रि को बत्ती बुझा कर कमरे में रात देखते रहते हैं। सूखी टहनियों और पत्तों की आवाज़ रात्रि के सन्नाटे को तोड़ते परंतु उनकी आवाज़ सुनते हुए भी वे उसे अनसुना कर देते थे क्योंकि सुनने और बाट जोहने के बीच उनका अपना एक शोर था, पहाड़ी शहर का निस्तब्ध शोर जिसका पीछा कोई शिकारी कुत्तों की तरह करते थे।’ अतीत को पुनर्जीवित करने वाली काया के सामने बुआ की लडक़ी लामा होती है। लामा उनके पास कुछ महीने रह कर चली गई थी। उसकी अनुपस्थिति में उन्होंने उसके कमरे को पूर्ववत रहने दिया था जिससे उनमें यह भ्रम बना रहता है कि वह अब भी वहां है और सदैव वहां रहेगी। वे यह सोचते रहते हैं कि लामा किसी भी समय आ सकती है। वह उन दोनों के लिए इतना छोड़ गई थी, उन्हें यह सोचना असंभव प्रतीत होता था कि वह उसके मध्य नहीं हैं। वे लामा की अनुपस्थिति में भी उसको मौजूद समझते हैं। लामा उनकी बुआ की लडक़ी है। उसका आकर्षक व्यक्तित्व है। बुआ और काया की मां दोनों को उसके विवाह की चिंता है। वह पहाड़ से मेरठ नहीं जाना चाहती। काया को लामा की मनोस्थिति देखकर यह भ्रम होता है, असल में वह यहां की रहने वाली है, इन पहाड़ों की जबकि हम बाहर के लोग हैं और यह अजीब लगता है कि हम यहां रहेंगे जबकि उसे एक दिन यह सब काली का मंदिर, रेल लाइन, चारों तरफ फैले जंगल छोड़ कर जाना होगा। लेखक ने काया, लामा और गिन्नी के साथ घुमक्कड़ी की स्मृति, फिर वृद्ध व्यक्ति से विवाह संबंधी प्रसंग अत्यंत कौशल से विन्यस्त किए हैं। लामा काया के माध्यम से अनाम पत्र मां को भेजती है जिसमें लिखा था कि जिस आदमी के साथ इस लडक़ी का विवाह किया जा रहा है वह बेहद बुरा है, उसे आंखों से दिखाई नहीं देता, कानों से सुनाई नहीं देता, उसकी पहली पत्नी छह महीने पहले मरी है। उस बेचारी ने कितना दुख भोगा होगा, वह किसी से छिपा नहीं है, सिवा उसकी मां के जो आंखों में पट्टी बांधकर उसे नरक में झोंक रही है। अगर आप इस लडक़ी का भला चाहते हैं तो उसे मेरठ मत भेजिए क्योंकि याद रखिए मेरठ भेजने का मतलब है उसे जानबूझकर मौत के मुंह में डालना।

इससे बड़ा कोई पाप नहीं है। याद रखिए इसका मतलब है मौत। लामा मेरठ नहीं जाना चाहती, वह कहती है मैं जाऊंगी लेकिन मैं यहां भी रहूंगी, उन्हें पता नहीं चलेगा कि जब तुम और छोटे कमरे में होंगे तो मैं आऊंगी, मैं हर रात तुम्हारे कमरे में आया करूंगी, लामा उससे पूछती है तुम आत्मा में विश्वास करती हो? सुनो गिन्नी की आंखों को खोलो तो कुछ दिखाई देता है। लामा के जाने के बाद काया उसकी अतीत की स्मृतियों में मग्न रहती है। लामा के जाने के बाद कुत्तिया की मृत्यु देखती है। उपन्यास में नथ वाली औरत पहाडऩ का प्रसंग भी है। पहाडऩ उन नारियों की प्रतीक है जो दांपत्य जीवन में पति की यातनाओं की शिकार होती हंै और आर्थिक निर्भरता के लिए जब घर से निकलती हैं वहां चारदीवारी में बंद रहती हंै। काया के चाचा उसे नारकंडा से लाते हैं। उसके साथ उसका एक बेटा भी होता है। पहाडऩ कोठरी में रहती है और बाहर बहुत कम निकलती है। काया अपने चाचा को एक रात पहाडऩ की कोठरी की सीढिय़ों से उतरते देखती है। उसे पहाडऩ की बातचीत से यह आभास होने लगता है कि यह उनका अनिवार्य सा क्रम है। उसके चाचा का लडक़ा बीरू से जादूगरनी समझता है। वह सोचता है कि उसने उसके बाप पर जादू किया है। पहाडऩ को भय, मोह और आतंक घेरे रहता है। चाचा काया को पहाडऩ के साथ बाहर घूमने जाने के लिए भेजते हैं। पहाडऩ उसे झरने के पास ले जाती है जहां उसे वह आकर्षक लगने लगती है। वह इतनी खूबसूरत हो सकती है, उस खुले रमणीय वातावरण में वह पहली बार अनुभव करती है।

-डा. हेमराज कौशिक

अलग मिट्टी से निकलीं हंसराज भारती की कहानियां

तेरह कहानियों का एक नया संगम पैदा करते हंसराज भारती ‘सुकेती पुल सलामत है…’ संग्रह के माध्यम से कहानी की विधा को अपनी शैली, विषयवस्तु तथा चित्रण से सश्क्त कर रहे हैं। कहानी कहने का रोचक अंदाज आरंभ से अंत तक एक वातावरण निर्मित करते हुए भाषा, विषय और संदर्भ के सलीके से प्रभाव छोड़ता है। ‘लौटते हुए’ तथा ‘रेड अलर्ट’ जैसी कहानियां अपनी व्यंग्यात्मक शब्दावली के कारण व्यवस्था की खबर लेती हैं, जहां भैंस केंद्रित पात्र भी हमारे आसपास की दुनिया की टोह ले लेता है या सीएम के चश्मे के खोने का रेड अलर्ट, व्यवस्था के कारनामों को उजागर करता हुआ इसे अलग मिट्टी की कहानी बना देता है। ‘लौटते हुए’ और ‘मैं और पाकिस्तान’ जैसी कहानियां अलग परिप्रेक्ष्य की बुनियाद पर चिंतन और विवेक को झिंझोड़ कर रख देती हैं। इसे हंसराज भारती के लेखन का पुष्ट पक्ष मानें या यह अद्भुत शैली है कि विषय अति संजीदा होकर भी सहज और सरल हो जाते हैं, ‘गुरुजी कहते, चाहे घर टूटे या मुल्क! बड़ी दीवारें खड़ी हो जाती हैं दिलों के दरम्यान।’ ‘मैं और पाकिस्तान’ में बार-बार पाकिस्तान का लौट आना कथ्य और तथ्य को मजबूत करता है। पाकिस्तान के हर घटनाक्रम में उलझते जज्बात के बावजूद मोहब्बत के अल्फा•ा कहीं नहीं हारते। मजहब और मिट्टी के संस्कारों का भेद मिटाती कहानी, युद्ध के वीभत्स अध्यायों से इनसानियत की बात करती है। ‘मिट्टी से दूर’, में आतंकवाद की प्रेत छाया में रिश्तों की सरहदों और अपनों को खोने के जलजले, मानवीय संवेदना के आरपार हो रहे हैं। पागलों की कचहरी में दर्द को चाहे पनाह न मिले, लेकिन इस पागलपन में भी इनसानियत के भोले भाले सवाल निरुत्तर कर देते हैं। आतंकवाद में अपना सर्वस्व खो चुकी राजी को सुरक्षा देते-देते, अंतत: भाई भी उसे खो देता है।

बहुत सारी कहानियों के सूत्रधार की भूमिका में लेखक कई आईने खड़े कर देता है। कई बड़े दायरे, असहज परिस्थितियां और प्रेम के कई चुंबक इन कहानियों में घूम रहे हैं, ‘वो पहला खत। सुहावने मौसमों, उनींदा शामों, गाती हवाओं, खामोश लम्हों, कच्चे कुंआरे एहसासों का जिंदा गवाह था खत, जो एक जमाने के बाद फिर उसके सामने था।’ ‘बंदूक और बांसुरी’, युद्ध पर प्रश्न टांगती कहानी है जहां एक फौजी बंदूक के बजाय अपनी अंगुलियों के स्पर्श से मानवता को संगीत सुनाना चाहता है, लेकिन युद्ध की परिणति में वह अपना हाथ गंवा बैठता है। ‘लाहौर’, मानवीय उड़ान और उमंगों के पलड़े को एक क्षण इतना भारी कर देती है कि ठेठ गांव से निकली बसंती खुद को दुनिया से ऊपर देखती है, लेकिन पाकिस्तान की हांडी में उफनते इसी लाहौर में अगले ही पल सारे अरमान फफोलों से भर जाते हैं। उसका अपहरण उसे पति की नजरों में कसूरवार बना देता है। ‘रिफ्यूजी’, मात्र एक शब्द नहीं, हजारों आहों का सबूत भी है। प्रेम विवाह की गाथा में कश्मीरी रिफ्यूजी दुल्हन के नाम पर सामाजिक-सांस्कृतिक विडंबनाएं किस तरह विकराल हो जाती हैं और मानवता के प्रश्न सरकंडे की तरह दुरुहता पैदा कर देते हैं। एक आम आदमी किस तरह सपनों में अपने जीवन की विडंबनाओं और हकीकत के तर्कों से दूर रहने की नुमाइश करता है, इसका सीधा वृत्तांत करती ‘सपनों की ओट में’ कहानी अपने भीतर दो पाट खड़े कर देती है। अपनी ही मृगतृषणाओं में वजूद की अनोखी तलाश युगों-युगों से जारी है। उधड़ी परंपराओं को सिलतीं हंसराज भारती की कहानियों में ‘खिंद’ कई प्रतीक खड़े करती है। अभाव और परिवार की विवशताओं के साथ ‘खिंद’ के बीच रिश्ते झांक रहे हैं, तो मां के प्यार का स्पर्श कहीं छुपा बैठा है। ‘यादों भरा स$फर’ में महानगरीय जिंदगी से दूर होता घर दिखाई देती है। महानगर में न जाने यादों की कितनी खड्डें बहती हैं और उन्हीं में से एक पुन: पहाड़ की ओर लौट आती है। ‘सुकेती पुल सलामत है…’, अपने भीतर मोहब्बत के दो छोर मिला रही है। पुल की तरह प्रेम यात्रा की गवाही में उफनती नदी समुद्र बनने को बेताब सी, लेकिन दिल पर देहयष्टि का प्रभाव कहीं गहरा है।

-निर्मल असो

कहानी संग्रह : सुकेती पुल सलामत है…
लेखक : हंसराज भारती
प्रकाशक : रश्मि प्रकाशन, लखनऊ
कीमत : 175 रुपए

पुस्तक समीक्षा : ललित मोहन शर्मा का एक और सुंदर काव्य संग्रह

हिमाचल प्रदेश को जहां प्रकृति ने नैसर्गिक सौंदर्य का उपहार खुलकर दिया है, वहीं कुछ ऐसी बहुमुखी प्रतिभाएं भी दी हैं, जो समाज के हर क्षेत्र में पहाड़ की पताका ऊंची उठाए रखती हैं। इनमें से एक हैं ललित मोहन शर्मा। शिक्षा जगत में उल्लेखनीय योगदान के बाद उन्होंने साहित्य सृजन को कर्म क्षेत्र बनाया और अब इसके माध्यम से प्रदेश का प्रतिनिधित्व बड़े साहित्यिक कैनवास पर बखूबी कर रहे हैं। अंगे्रजी और हिंदी, दोनों भाषाओं पर मजबूत पकड़ रखने वाले धर्मशाला निवासी ललित मोहन शर्मा की एक और पुस्तक तब साहित्य प्रेमियों तक पहुंची, जब हिमाचल रिवाज और राज बदलने के द्वंद्व से जूझ रहा था। ‘पैरबल फेयर एंड फ्लॉड’ शीर्षक से सामने आया उनकी अंग्रेजी कविताओं का संग्रह प्रदेश के भीतर और बाहर साहित्य प्रेमियों को खूब पसंद आ रहा है। आकार में छोटी-बड़ी 85 कविताओं का यह गुलदस्ता लेखक ने अपने पिछले अंग्रेजी काव्य संग्रह ‘आई•ा ऑफ साइलेंस’ बाजार में आने के बाद संजोया है।

ललित मोहन शर्मा के शब्दों में कहें, ‘वायु और प्रकाश की तरह कविता भी हर किसी को छूती है।’ उनकी मौजूदा पुस्तक की घटक कविताओं पर दृष्टिपात करें, तो उनके शब्द अक्षरश: सटीक मालूम होते हैं। आम जनमानस के विचार, द्वंद्व, अनुभूति, अभिव्यक्ति, व्यथा और उम्मीद, लेखक अपनी अप्रतिम कला से हर समाहित कृति को कुछ यूं प्रस्तुत करते हैं कि पाठक उन्हें अपनी स्मृतियों के अवचेतन में कहीं मन को सहलाते हुए महसूस करता है। लेखक की पिछली पुस्तकों की तरह यह किताब भी भाषायी त्रुटियों से दूर है। काग•ा और छपाई भी ऐसी कि किसी विश्व स्तरीय प्रकाशक की ओर से प्रकाशित कोई क्लासिक कृति आपके हाथों में हो। ऑथर्सप्रेस, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित ललित मोहन शर्मा की इस पुस्तक के पेपर बैक संस्करण का मूल्य 295 रुपए है, जो विषय वस्तु, प्रस्तुतिकरण, सामग्री और छपाई जैसी विशेषताओं के कारण सर्वथा उचित कहा जा सकता है। कम शब्दों में कहें, तो ललित मोहन शर्मा की अंग्रेजी कविताओं से सुसज्जित उनकी नई पुस्तक ‘पैरबल फेयर एंड फ्लॉड’ हर दृष्टि से पठनीय और आपकी लाइब्रेरी में सामने सजाकर रखने के लिए उत्तम कृति है।

-अनिल अग्निहोत्री