पहाड़ी भाषा पर विमर्श

हिमाचल को हिंदी भाषी प्रदेश के तौर पर मान्यता प्राप्त है। समय समय पर यह मांग उठती रही है हिमाचल की कोई सर्वमान्य बोली हो जिसको हिमाचली पहाड़ी भाषा के तौर पर मान्यता मिल सके। ऐतिहासिक तथ्य देखे जाएं तो हिमाचल में हर दस से बीस किलोमीटर की दूरी पर बोली बदल जाती है। शिमला में अलग बोली है तो लाहौल में अलग। कांगड़ा में कांगड़ी तो मंडी में मंडयाली। कुल्लू जैसे कुछ जिले तो ऐसे हैं जिनमें चार से पांच बोलियां प्रचलन में हैं। किन्नौर की बोली का मेल पांगी-भरमौर से नहीं खाता तो सिरमौर की बोली का ऊना के पंजाबी कल्चर के साथ बहुत अंतर है। वर्तमान में तकनीक और संचार क्रांति के इस दौर में बेशक एक दूसरे की संस्कृति, बोली, भाषा को समझना आसान हो गया है। एक दूसरे की बोली को समझने में एक ओर जहां पारम्परिक गीतों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है वहीं रीति रिवाज और सांस्कृतिक समानता का भी विशेष महत्व रहा है। वर्तमान में हिमाचल में चालीस से अधिक बोलियां बोली जाती हैं। इनकी खूबसूरती और मौलिकता भी इनके मूल स्वरूप में ही है।

यदि इनको मिला कर हिमाचल की एक सर्वमान्य पहाड़ी भाषा बनाने की कोशिश की जाती है तो इनकी मौलिकता से छेड़छाड़ करनी पड़ेगी और जिस की वजह से इनके अस्तित्व पर भी संकट आ सकता है। संरक्षण की दृष्टि से एक पहाड़ी भाषा का स्वरूप अधिक प्रभावी हो सकता है। परंतु इस से बहुत सी बोलियों पर अस्तित्व का संकट आ सकता है। एक हिमाचली पहाड़ी भाषा को आठवीं अनुसूची में दर्ज करने का प्रयास किया जाता है, यह समय की मांग भी है। इस से पहाड़ी भाषा को अलग पहचान स्थापित करने में भी मदद अवश्य मिलेगी। इसके साथ साथ प्रदेश की अन्य बोलियों को संरक्षित करने के लिए विशेष योजना बनाई जानी आवश्यक है, जिससे पहाड़ी संस्कृति और बोलियों के मूल स्वरूप को बनाए रखा जा सके। इनकी मौलिक स्वरूप में जो रस और मिठास है जो अपनत्व और सांस्कृतिक विरासत की झलक इनमें विद्यमान है इन तत्वों का संरक्षण तभी सम्भव है जब इनको विकसित करने के लिए कोई मास्टर प्लान तैयार हो। अन्यथा अनेकता में एकता के भाव की कोशिश में मूल बोलियों के साथ अन्याय संभव है। हिमाचली पहाड़ी भाषा की मान्यता के लिए प्रयास की सार्थकता हिमाचल में बोली जाने वाली तीस से चालीस बोलियों के संरक्षण में ही निहित है। इसके लिए गंभीर प्रयासों की आवश्यकता है। हालांकि प्रदेश का भाषा कला एवं संस्कृति विभाग इस दिशा में सालों से मुख्य भूमिका निभा रहा है। किसी भी भाषा को आठवीं अनुसूची में मान्यता देना केंद्रीय सरकार के आदेशों पर निर्भर करता है। फिर भी कोई सर्वमान्य सहमति प्रदेश स्तर पर बनती है तो पहाड़ी भाषा के लिए मील का पत्थर साबित हो सकती है। सुकून की बात यह है कि प्रदेश के कई साहित्यकार, जो विभिन्न जिलों से हैं, पहाड़ी हिमाचली भाषा को मान्यता दिलाने के लिए अपने प्रयास जारी रखे हुए हैं। हिमाचल के साहित्यकारों में यह सहमति है कि प्रदेश की अपनी अलग भाषा होनी चाहिए। हिमाचल से चुने गए सांंसदों को केंद्र से यह मसला उठाते हुए हिमाचली पहाड़ी भाषा को संवैधानिक दर्जा दिलाना चाहिए। -श्याम लाल हांडा, कुल्लू