धर्मनिरपेक्ष मुर्गे नहीं कटेंगे

मुर्गों का आपे से बाहर होना कितना वाजिब है, यह सोच सोच कर पोलट्री फॉर्म के सारे मुर्गे परेशान थे। हालांकि मुर्गियों में थोड़ी बहुत शालीनता इस भय से बची थी कि न जाने कब ‘घर की मुर्गी’ समझ दाल ही न बना दिया जाए। मुर्गों में गुस्सा इस बात को लेकर था कि वे कब तक यूं ही कटते रहेंगे, जबकि कटने के लिए तो अब धार्मिक होना जरूरी है। मुर्गों की बगावत इस बात को लेकर थी कि वे धर्मनिरपेक्ष रह कर भी मर रहे हैं, बल्कि हर धर्म के लोगों को उनके कटने की जल्दी लगी रहती है। ऐसे में वे फैसला करने को उतावले थे कि किसी तरह इनसानों की तरह उनका भी धर्म हो और वे मजहब के लिए कुर्बान माने जाएं। मालिक पहली बार हैरान था कि कल के मुर्गे आज धर्म जैसी बातें करने लगे हैं। उसे यह समझ नहीं आ रहा था कि मुर्गों में धर्म की बात घुसी कहां से। वैसे भी उसने आज तक कभी यह सोचना नहीं कि मुर्गों की सप्लाई किस धर्म के लोगों में की जाए। उसके लिए तो हर धर्म के अनुयायियों में मुर्गे की खरीद निरंतर बढ़ रही है।

लोग बाग बिना धर्म बताए यह पहचान दिखाते हैं कि उन्हें खाने के लिए मोटा-ताजा मुर्गा मिल जाए। तराजू पर चढ़ते-उतरते मुर्गे उसके लिए बस एक सौदा ही तो हैं। वह मुर्गों के साथ-साथ इनसानों की नस्ल भी पहचानने लगा है। दरअसल नस्ल बनकर इनसान धर्म की आड़ में छुप सकता है, जबकि धर्म बन कर इनसान नस्ल के काबिल भी नहीं रहता। मुर्गे खुद को नस्ल मानते थे, लेकिन अब धर्म में जाना चाहते थे। मरने के लिए उन्हें ऐसे धर्म की तलाश थी, जो उनकी नस्ल को पहचान दिला सके। पहली बार ऐसा मसला खड़ा हुआ, जहां धर्म से नस्ल का पता ढूंढा जा रहा था। साधारण मुर्गों को यह समझ नहीं आ रहा था कि मरने से पहले नस्ल और धर्म के भ्रम कैसे दूर हो सकते हैं। उन्हें धर्मनिरपेक्ष मरने और धर्म के साथ मरने में भी कोई अंतर दिखाई नहीं दे रहा था, लेकिन सामने दो चतुर मुर्गे अपनी वकालत में ऐसी जिरह पेश कर रहे थे कि मात्र सुनकर ही सहमत होने वालों की संख्या बढ़ गई। देखते ही देखते हर मुर्गा अपने अपने अस्तित्व के लिए धर्म खोजने लगा। कोई नस्ल के लिए, तो कोई पुरखों को याद करने के लिए धर्म में प्रवेश करने की इच्छा व्यक्त करने लगा। खैर फैसला हो गया कि आइंदा मुर्गा धर्मनिरपेक्ष नहीं कटेगा। आपसी चोंच लड़ा-लड़ा कर मुर्गों ने कई टोलियां बना लीं और इसी हिसाब से वे इनसान के बनाए धर्मों में बंट गए।

मालिक अब धर्म के हिसाब से मुर्गों को कटने के लिए बेचता। विश्व के हर धर्म के लोग चुन चुन कर मुर्गे खा रहे थे और इधर मुर्गे एक दूसरे को देख देख कर कह रहे थे, ‘देखो, आज फलां धर्म कट गया। आज हमारा धर्म कटने से बच गया।’ मालिक अपने हिसाब से मुर्गों में धर्म देखकर उन्हें बेचता और जिसकी टोली में कम होते वहां धर्म के हिसाब से नया मुर्गा छोड़ देता। मुर्गे प्रसन्न थे कि वे अब कम से कम धर्म के नाम पर इनसान के बराबर हो गए हैं और उनके बीच हर धर्म का प्रवेश हो चुका है। अंतत: एक दिन एक खास धर्म के खरीददार का दूसरे धर्म के मुर्गे पर दिल आ गया। वह दूसरे धर्म का मुर्गा खाना चाहता था, लेकिन पोल्ट्री फार्म का मालिक उसे समझाने लगा कि मुर्गों को यह मंजूर नहीं कि किसी अन्य धर्म का व्यक्ति उन्हें खाए। वे अपने धर्म की खातिर गर्दन आगे करके मरना चाहते हैं, इसलिए ग्राहक का धर्म मैच करके उसने एक अन्य मुर्गा तोल दिया। ग्राहक और मालिक के बीच सहमति का संवाद सुनकर मुर्गे अब धर्म की दीवार लांघ कर सुरक्षित होना चाहते थे। उन्हें मालूम हो चुका था कि इनसान दूसरे के कटने में भी किस तरह अपने धर्म की शेखी बघार सकता है। वे अब धर्म के नाम पर कटना नहीं चाहते थे, लिहाजा वे बचने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे। कल तक मुर्गों को जिस धर्म पर फख्र था, उसके नाम पर भी उन्हें कोई बेच रहा था, तो कोई काट रहा था। उन्हें समझ आ गया कि धर्म के नाम पर इनसान सिर्फ किसी न किसी को अपने हिसाब से काटने का तर्क बना रहा है।

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक