पुस्तक मेले में न होते हुए…

ख़बरें गवाह हैं, लेखकों, किताबों व प्रकाशकों के नकद मिलन मेले में इस साल खूब भीड़ रही। वैसे डिजिटल होने का बहुत फायदा है लेकिन जो मज़ा सशरीर आमने सामने प्रशंसा, सिर्फ इशारों में कटाक्ष या पीठ के पीछे खड़े होकर चर्चा करने में है वह और कहां। पुस्तक मेले में जितने हाथ मिलाए गए, लगता है उतने ही दिलों का मिलन भी हो गया। देखा जाए तो वर्तमान, अच्छी यादों में बदलकर भविष्य के लिए संबल बन जाता है। पुस्तक मेले में अपने चिर परिचित, अपरिचित या अतिअपरिचित व्यक्तियों, लेखकों और साहित्यकारों को सामने पाकर मेले में पहुंचने वाला हर बंदा खुद को थोड़ा सा लेखक समझ लेता है। किसी की भी पहली पुस्तक ही प्रसिद्ध हाथों से रिलीज़ हो सकती है। अनुभवी लेखक की बत्तीसवीं पुस्तक तो वहीं लोकार्पित होनी होती है। कहीं पढ़ा था किताबें समाज में परिवर्तन लाती हैं तो दर्जनों के हिसाब से पुस्तकें लिखने वालों ने काफी ज्यादा बदलाव ला दिया होगा। ऐसे में सिर्फ विचारों में क्रान्ति की चाहत पोषित करने वाले आम व्यक्ति के दिमाग में भी लेखन का कीड़ा घुस जाता होगा। नई किताबों की ताज़ा सुगंध, स्थापित लेखकों और प्रकाशकों के साथ सेल्फी खिंचवाकर हाथ में कलम होना या कुछ टाइप करना महसूस होता होगा।

हमारी साहित्यिक परम्परा है कि किताब या लेखक से मिलकर कमबख्त दिमाग संजीदगी से सोचने लगता है कि काश हम भी लेखक होते। पुस्तक मेले में कई लोगों ने चुटकी तो ली होगी कि फलां बंदे ने अमुक यशस्वी लेखक के साथ या प्रसिद्ध प्रकाशक के स्टाल पर फोटो खिंचवाकर अपना लेखक होना जताया। लेकिन वहां कोई लेखक होने, बनने या दिखने के लिए ही तो नहीं जाता, किताबी मेले में दूसरों की पुस्तक लोकार्पण की मिठाई या कुछ भी खाने के बहाने फेसबुकिया या व्ह्त्सेपिया मित्र लेखक भी तो मिलते हैं। कुछ लेखक वहां पहुंचकर राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध लेखक, समीक्षक, मुख्यमंत्री या फिर राज्यपाल के प्रसिद्ध हाथों से पुस्तक का ख़ास पैकिंग खुलवाने की तुलना ज़रूर करते होंगे। बताते हैं मुख्यमंत्री के हाथों लोकार्पित होने से किताब भी बहुत ज्यादा खुश होती है। अब तो किताब लिखना, छपवाना और लोकार्पण करवाना आसान हो गया है, लेकिन पाठक, मित्रों या सरकार को किताब बेचना मुश्किल। वैसे मेले में होकर खुद पर इतराने और फेसबुक के लिए काफी सामान मिल जाता है। चित्रों से लगता है वहां सभी एक दूसरे से असली प्यार से, असली गले मिलकर असली खुश होते होंगे। छोटे शहर की साहित्यिक दुनिया की तरह लेखक, वहां बड़े खेमों में बिल्कुल बंटे नहीं होंगे। उनमें ईष्र्या, एक दूसरे को खारिज करने जैसी कुभावनाएं नहीं होती होंगी। किताबें तो जड़ होती हैं और वे जीवित, सो उनमें ऐसा कुछ नहीं उगता होगा। प्रायोजित लेखक द्वारा माइक पर पढ़ी जाने के बाद रचना धन्य हो उठती होगी। उन्हें लगता होगा विशाल जगमग मंच मिलने पर उनका साहित्य, राष्ट्रीय नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुंच गया है। किताबों की मस्त चकाचौंध में नवोदित संजीदा लेखक को लगता होगा कि सुविधाओं भरी इस साहित्यिक दुनिया में कुछ किताबें तो वह भी लिख, छपवा और बिकवा सकता है। मेरे जैसा बंदा जो कभी मेले में नहीं गया, घर पर बैठ कागज़ काले कर कर ही, पुस्तक मेले में जाकर लौट आने जैसा महसूस कर सकता है।

प्रभात कुमार

स्वतंत्र लेखक