पुरस्कार का जुगाड़

आजकल पुरस्कार मूली-गाजर के भाव मिल रहे हैं। देने वाले फेरी लगाकर आवाज लगाते हैं-पुरस्कार ले लो पुरस्कार। हर चीज के खरीददार मिलेंगे। फिर पुरस्कारों को कौन छोड़ता है-जब वे बिना योगदान के मात्र मोलभाव के मोल मिलने लगें तो। पुरस्कार साहित्य का है तो और भी सुविधा है। अपना आदमी होना चाहिए। अपना खेमा और अपनी विचारधारा। फिर पुरस्कार चाहे पंद्रह पृष्ठ की बुलेटिन पर देना पड़े, दे दिया जाता है। पुरस्कार के लिए मौलिक साहित्य लेखन भी अब आवश्यक नहीं रह गया। पुस्तक ऐतिहासिक हो-साहित्य का पुरस्कार आराम से मिल जाएगा। आजकल तो एक और नया चलन चला है कि पुरस्कार पाठ्य पुस्तकों पर भी दिया जाने लगा है। इधर पुस्तक पाठ्यक्रम में छात्रों की दृष्टि से लिखी गई है। प्रश्न दिये गये हैं। हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा हुआ है और पुरस्कार दिया जा रहा है। किसी विधा में किसी लेखक को ज्यादा मेहनत-मशक्कत अथवा जमने जमाने की जरूरत नहीं है।

आप यदि संस्था प्रधान को जानते हैं तो वह पुरस्कार देने में जरा भी देर नहीं करेगा। लेकिन शर्त इतनी-सी है कि आप उनके चिलमगीरों में हो या नहीं, यह देखना आपके हाथ में है। पुरस्कार के लिए किताब मैंने भी भेजी थी, लेकिन मुझे नहीं मिला। मैंने कारणों का पता लगाया तो मालूम हुआ कि मैं अपने आपको लेखक समझता हूं। अब बताइये कि मैं लेखक हूं और अपने आपको लेखक समझता हूं तो इसमें गलत क्या है? फिर लेखक हूं, तभी तो पुरस्कार मांग रहा हूं। साहित्य का पुरस्कार लेखक ही तो पा सकता है। लेकिन उनका तर्क है कि जिनको उन्होंने पुरस्कार दिया है-सीधे सादे हैं तथा उनमें लेखकीय अस्मिता तनिक भी नहीं है। मैं सोचता ही रह गया कि हद होती है। एक विधा में काम किया, पहचान बनायी और जब पुरस्कार की बारी आयी तो साफ इंकार कर दिया गया है। जिनको पुरस्कार मिला था, वे फूल कर कुप्पा हो गये थे।

मैंने कहा-‘अमां यार, सुना है तुम अपने आपको लेखक ही नहीं समझते बताये।’ वे महिमामंडित हो चुके थे, सो बोले-‘अजी लेखक नहीं होते तो पुस्कार कैसे मिलता? आपको पता नहीं है क्या, मुझे अभी साहित्य का पुरस्कार मिला है?’ ‘अरे हां भाई, उसी संदर्भ में तो पूछ रहा था। संस्था प्रधान आपको लेखक नहीं मानते। एक हानिरहित जीव मानकर आपको इस पुरस्कार से नवाजा गया है और फिर आपने तो कमाल ही कर दिया भाई, पाठ्य पुस्तक पर ही पुरस्कार मार लिया, यह सब कैसे हुआ? कुछ तो बताओ।’ मैंने कहा! वे बोले-‘शर्मा साहब, हमारे कौन-सी पुरस्कार की खाज थी? वे ही बोले-यार, इस वर्ष पुरस्कार ले लो, तो बताओ मना करता क्या? मुंह में आया बताशा कौन छोड़ता है।’ ‘इसका मतलब आपने चिलम भी नहीं भरी उनकी। उधर यह भी अफवाह है कि आपने उनकी चमचागिरी की थी।’ ‘देखिये शर्मा जी, अब थोड़ा बहुत तो करना ही पड़ता है। आप यह चमचा और चिलम का प्रयोग कर रहे हैं, यह निहायत ही गलत है। दरअसल एक साथ उठना-बैठना था! विचारधारा के मामले में तो आप जानते ही हैं-मैं जैसी हवा चलती है, विचारधारा वैसी ही बना लेता हूं। इतिहास को पढ़ कर कुछ लिखने का मन बना और उधर इसी वर्ष पुरस्कार का ऑफर आ गया। सोचा, बहती गंगा में हाथ धो लेने में हर्ज क्या है?’ वे बोले।

पूरन सरमा

स्वतंत्र लेखक