सफलता का मूल स्रोत

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

किंतु उनके अनुयायी उनके उपदेशों को तो किनारे रख देते हैं और केवल उनके नाम के लिए झगड़ा करने लगते हैं। यही संसार का अब तक का इतिहास बताता है। मेरा इस बात पर विशेष आग्रह नहीं कि लोग उनका नाम स्वीकार करते अथवा नहीं किंतु मैं उनके उपदेशों, उनके चरित्र एवं उनके संदेश को समस्त संसार में फैलाने के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने को भी तत्पर हूं। मुझे सबसे अधिक डर जिस चीज से लगता है वह है पूजागृह।

वह स्वयं में कोई खराब चीज नहीं है किंतु कुछ लोगों में प्रवृत्ति होती है कि वे उसे ही सब कुछ मान लेते हैं और उस पुरातनपंथी मूर्खता को पुनस्र्थापित कर देते हैं। इस विचार मात्र से ही मैं घबरा जाता हूं। मैं जानता हूं कि वे पुराने निर्जीव कर्मकांडों में क्यों स्वयं को व्यस्त रखते हैं। उनकी आत्मा कार्य करने के लिए तरसती है, किंतु जब उनकी शक्ति को कोई सही मार्ग समझ में नहीं आता तो वे घंटी बजाने आदि में ही अपनी शक्ति व्यर्थ कर देते हैं।

मतांध मत बनो- भारत के एक भिक्षु का कथन है, मैं विश्वास कर लूंगा यदि तुम कहो कि मैं मरुस्थल की रेत को पीसकर तेल निकाल सकता हूं, मगरमच्छ के मुंह में हाथ डालकर उसके दांत को बिना हाथ कटवाए तोडक़र आ सकता हूं, किंतु यदि तुम कहो कि मतांध को बदला जा सकता है तो मैं कदापि विश्वास नहीं कर सकता। भारत के वैष्णव लोग जो द्वैतवादी होते हैं, सबसे असहिष्णु संप्रदाय में आते हैं। एक अन्य द्वैतवादी संप्रदाय शैवों में घंटकर्ण नामक एक भक्त के बारे में एक कथा प्रचलित है। वह कथा इस प्रकार है।

घंटकर्ण शिव का इतना कट्टर भक्त था कि वह किसी दूसरे देवता का नाम भी अपने कानों से नहीं सुनना चाहता था अत: उसने अपने दोनों कानों में दो घंटियां लटका ली थी ताकि यदि किसी अन्य देवता का नाम उसके कानों में पडऩे लगे तो घंटियों के स्वर में उस नाम की ध्वनि को दबा दे। शिव के प्रति अकाट्य भक्ति होने के कारण शिव उसे यह समझाना चाहते थे कि शिव और विष्णु में कोई भेद नहीं है। अतएव वह उसके समक्ष आधा विष्णु आधा शिव का रूप धारण कर प्रकट हुए। उस समय वह भक्त अपने इष्ट को धूपाचर्न कर रहा था किंतु उस घंटकर्ण की मतान्धता इतने परले सिरे की थी कि ज्यों ही उसने देखा कि धूप की सुगंध विष्णु की नाक में प्रवेश कर रही है, उसने अपनी अंगुली उसमें घुसेड़ दी ताकि विष्णु उस मधुर सुगंध का आनंद न ले सकें।

कट्टरवादी मत बनो

कट्टरवादी अनेक प्रकार के होते हैं। कुछ लोग सुरा के विरुद्ध होते हैं, कुछ लोग सिगार के विरुद्ध। कुछ समझते हैं कि सिगार पीना छोड़ दें तो संसार में स्वर्णयुग आ जाएगा। भारत में कुछ कट्टरवादी सुधारक सोचते हैं कि यदि स्त्री अपने पति के मरने के पश्चात दूसरा विवाह कर लेती है तो सब बुराइयों का अंत हो जाएगा। यह निरी कट्टरवादिता है। बचपन में मैं भी यही सोचा करता था कि कट्टरवादिता कार्य का अनिवार्य ढंग है। किंतु अब बड़ा होने के पश्चात मुझे लगता है कि यह बात सही नहीं है। कोई व्यक्ति है जो सबको ठगता घूमता है पर उस पर कभी विश्वास नहीं किया जा सकता। कोई स्त्री उसके निकट सुरक्षित नहीं है। किंतु हो सकता है यह दुष्ट शाराब न पीता हो। यदि ऐसा हो, तो उसे शराब पीने वाले में कोई अच्छाई नहीं दिखाई देगी। फिर ये सब राक्षसी कृत्य जिन्हें वह स्वयं करता है उसकी दृष्टि में कोई बुराई ही नहीं रखते। यह मानव प्रकृति मूलक स्वार्थपरता एवं एकांगीपन है। सौ में निन्यानवें कट्टवादियों का या तो यकृत विकृत होगा अथवा वे अग्रिमांद्य रोग के शिकार रहते होंगे या अन्य किसी बीमारी के। शनै:शनै: चिकित्सकों की समझ में भी यह बात आ जाएगी। – क्रमश: