ब्रह्मांड की शक्तियां

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

कर्म का यह ताना-बाना सबने अपने चारों ओर पूर लिया है। अज्ञानवश हम समझते हैं कि हम बंधन में पड़े हैं और तब सहायता के लिए चीखते-पुकारते हैं। किंतु सहायता बाहर से नहीं आती वह हमारे अंदर से ही आएगी। चाहे तुम विश्व के समस्त देवताओं का नाम लेकर चिल्लाओ, पुकारो। मैं भी वर्षों तक चिल्लाया। अंत में मैंने पाया कि मुझे सहायता मिली, किंतु वह मेरे अंदर से आई। जो कुछ मैंने भूलें की थी उसका मुझे निराकरण करना पड़ा। यही एकमेव मार्ग है मुझे उस जाल को काटना पड़ा, जो मैंने अपने चारों ओर बुन लिया था और उसे काटने की शक्ति अपने अंदर ही विद्यमान है। मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूं कि मेरे विगत जीवन की एक भी अच्छी या बुरी कामना व्यर्थ नहीं गई और आज मैं जो कुछ भी हूं अपने संपूर्ण अतीत का ही परिणाम हूं। मैंने जीवन में अनेक भूलें की हैं किंतु ध्यान दो मुझे निश्चय है कि उनमें से प्रत्येक भूल को किए बिना मैं वह नहीं बन पाता जो आज हूं और इसलिए मुझे पूर्ण संतोष है कि मैंने वे भूलें कीं। मेरे कहने का यह अर्थ कदापि नहीं कि तुम घर वापस जाकर जान बुझकर गलतियां करना शुरू कर दो। मेरे कथन का यह गलत अर्थ मत लगाओ। किंतु जो भूलें तुमसे हो चुकी हैं उनके लिए खिन्न मत होओ। स्मरण रखो कि अंत में सब कुछ ठीक हो जाएगा। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य हो ही नहीं सकता, क्योंकि हमारी प्रकृति ही शुद्ध है। और वह प्रकृति नष्ट नहीं की जा सकती। हमारी मूल प्रकृति सदा यही बनी रहती है।

सद्चरित्र का निर्माण

मनुष्य मानो एक केंद्र है जो अपनी चारों ओर ये ब्रह्मांड की समस्त शक्तियों को आकर्षित कर रहा है। इस केंद्र में वे समस्त शक्तियां समाहित होकर पुनरपि एक शक्ति प्रवाह के रूप में वहां से वापस लौट रही हंै। पाप-पुण्य, दु:ख-सुख सब उसकी और दौड़ रहे हैं। और उससे चिपक रहे हैं। उन्हीं में से वह प्रवृत्तियों की उस प्रबल धारा का निर्माण करता है जिसे चरित्र कहते हैं तथा उसे प्रकाशित करता है। जिस प्रकार उसमें सब कुछ आकर्षित करने की शक्ति विद्यमान है, उसी प्रकार उसे विकीर्ण करने की शक्ति भी विद्यमान है। यदि कोई मनुष्य लगातार अशुभ बातें सुने, अशुभ चिंतन करे, अशुभ कर्म करे तो उसका अंत:करण बुरे संस्कारों से मलिन हो जाएगा। वे उसके अनजाने में ही उसके समस्त विचारों और कार्यों को प्रभावित करेंगे। वास्तव में, ये कुसंस्कार सदैव कार्यशील बने रहते हैं और उसका परिणाम होता है केवल अनिष्ट कर्म और मनुष्य बुरा मनुष्य बन जाता है। वह इसे रोक नहीं सकता। ये समस्त संस्कार एकत्रित होकर उसके अंदर बुरे कर्मों के लिए प्रबल इच्छा उत्पन्न कर देंगे। वह इन संस्कारों के हाथ की कठपुतली बन जाएगा और वे निरंतर दुष्कर्म की ओर ढकेलेंगे। इसी प्रकार यदि कोई मनुष्य शुभ चिंतन करता है, शुभ कर्म करता है, तो उनके संस्कारों का संचय शुभ होगा। ये शुभ संस्कार ठीक उसी प्रकार उसे उसकी इच्छा के विपरीत भी सत्कर्मों की ओर प्रवृत्त करेंगे। जब मनुष्य अत्यधिक शुभ कर्म एवं शुभ चिंतन कर चुका होता है, तो उसमें अपनी इच्छा के विपरीत भी शुभ कर्म करने की अप्रतिहत प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। – क्रमश: