गहरे ध्यान में उतरना

ओशो

भागदौड़ भरी जिंदगी ने भौतिक सुख-सुविधाएं तो खूब दी हैं, लेकिन हमारे भीतर धीरे-धीरे तनाव भी उसी अनुपात में बढ़ता गया है। हमारी सहजता गुम हो रही है और हम अनावश्यक रूप से गंभीर हो रहे हैं। यह चिंता का विषय है। लोग इससे उबरना चाहते हैं जिसके लिए पूरे विश्व में तरह-तरह के प्रयोग किए जा रहे हैं। इनमें से कुछ प्रयोग ध्यान के नाम पर हो रहे हैं, जबकि वास्तव में वे ध्यान हैं ही नहीं। ध्यान के बारे में पूरी दुनिया में बहुत सी गलतफहमियां हैं। बमुश्किल एक प्रतिशत ध्यान को खोजने चलते हैं और उस एक प्रतिशत में भी 99 प्रतिशत ध्यान में पहुंच नहीं पाते। आज ध्यान के नाम पर माइंडफुलनेस, कान्संट्रेशन आदि का काम चल रहा है। माइंडफुलनेस का अर्थ है अपनी चेतना को कहीं एकाग्र करना। कोई चित्र देखता है, कोई किसी की आंख देखता है आदि-आदि। मगर यह बुद्ध का, ओशो का ध्यान नहीं है। कुछ अन्य लोग हिप्नोसिस कर रहे हैं और उसे ध्यान के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, लेकिन हिप्नोसिस या सम्मोहन भी ध्यान नहीं है। फिर ध्यान क्या है? ध्यान किसी भी वस्तु पर एकाग्र होने का नाम नहीं है। वस्तुत:जब हर बिंदु मिट जाता है, तभी ध्यान लगता है। कृष्ण कहते हैं नासाग्र ध्यान। लेकिन इसके भी गलत मायने निकालकर लोग नासिका के अगले हिस्से को देखने की कोशिश करते हुए ध्यान लगाने का प्रयास करते हैं। ऐसा करने से ध्यान तो नहीं लगता, सिरदर्द जरूर हो सकता है। नासिकाग्र का अर्थ है नासिका का वह हिस्सा जहां से नासिका शुरू होती है। यानी भृकुटियों के मध्य। नासाग्र को अगर आप देखना शुरू करेंगे, तो वहां कोई आकार दिखाई नहीं देगा। वहां निराकार है। उसी निराकार को देखो, सांस लो, सांस रोको और फिर देखो। जैसे बाहर आकाश है, ऐसे ही भीतर का आकाश जब गहराई से दिखना शुरू हो जाए, तभी समझें कि आप ध्यान में थे। बस, उस निराकार को देखते रहो, देखोगे कि वहां कोई विचार नहीं है।

यह निर्विषय की स्थिति है। लेकिन यह केवल आंखें बंद करने से नहीं होगा। आंखें बंद करके अपने अंतर आकाश को देखना होगा। भीतर के प्रति इस निराकार को देखने को ही ओशो कहते हैं। निराकार के प्रति जागना ही ध्यान है। सक्रिय ध्यान या कुंडलिनी ध्यान, ध्यान नहीं हैं। वे तो ध्यान की तैयारी हैं। असली अनुभव है निराकार के प्रति जागना। इस जागरण में नित्य डूबते-डूबते आप पाएंगे कि यही ध्यान एक दिन ज्ञान बन गया। होशपूर्वक किया गया हर काम ध्यान है। इसकी शुरुआत शरीर के तल से ही होगी। फिर विचारों और भावों के प्रति होश से भरना होगा। इस अवस्था में पहुंचने के बाद आप होश के जिस तल पर होंगे, उसके प्रति होश रखना ध्यान की परम अवस्था है। जब आपके भीतर की सारी हलचल समाप्त हो जाएगी, तभी यह अवस्था प्राप्त होगी। आप यह भी कह सकते हैं कि यह अवस्था आपके भीतर के सारे कंप को समाप्त कर देगी।

स्वयं का पूर्ण समर्पण ध्यान की शर्त है। भीतर चल रहा किसी भी प्रकार का संघर्ष आपके ध्यानस्थ होने में बाधक बनेगा। ध्यान में उतरने में, प्राय: उतने ही मिनट लगते हैं जितनी आपकी उम्र है। इसलिए यदि बालपन में इसकी नींव पड़ जाए, तो ध्यान करना एक खेल बन सकता है। इसी प्रकार,यदि आपने ध्यान में उतरने की कोशिश देर से शुरू की है, तो जल्दी परिणाम की अपेक्षा न करें। जीवन उदासी में नहीं, खेलपूर्ण होने में है। इसलिए ध्यान करने की कोशिश में अनावश्यक रूप से गंभीर न हो जाएं। गंभीरता आपके अंतस में एक प्रकार के संघर्ष को जन्म देगी और फिर ध्यान में उतरना मुश्किल हो जाएगा। सहज रहें। स्वयं को इतना छोड़ दें कि आपकी ओर से कोई प्रयास होता न दिखे। इसी से ध्यान आपके लिए एक खेल जैसा हो जाएगा जिसमें आप जब चाहें प्रवेश कर सकते हैं।