प्रतिस्पर्धा से सामुदायिक व्यवहार की हत्या

जे.पी. शर्मा, मनोवैज्ञानिक
नीलकंठ, मेन बाजार ऊना मो. 9816168952

बचपन में शिक्षा पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाता था कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज की महत्त्वपूर्ण इकाई मनुष्य ही था, जो मिलकर समाज की संरचना करता था। पहले समय में प्राणी सामुहिक रूप से इक्कठा रहा करते थे। परस्पर एक दूसरे के दु:ख-सुख में भागीदार बनते थे, ऊंच-नीच, जाति-पाति, गरीब-अमीर का भेदभाव भुलाकर समान रूप से व्यवहार करते थे। उत्सव भी मिलजुल कर खुशी से मनाया करते थे, धीरे-धीरे वो कालखंड बदलता चला गया साथ ही सामाजिक भाईचारे, आचार व्यवहार में तबदीली आती चली गई। जो मनुष्य स्वयं का अहम भुलाकर सभी को साथ लेकर चलता था, वो धीरे-धीरे निजी स्वार्थ में संलिप्त होकर महत्त्वाकांक्षी बनने लगा परमार्थ की भावना गौण हो गई। जब महत्त्वाकांक्षाएं पनपती हंै, तो एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में उसने ईष्र्याएं भी पाल ली। बेशक सभ्य समाज की मर्यादा के अंतगर्त उसने ईष्र्या की शब्दावली को स्पर्धा यानी सकारात्मक ईष्र्या का नाम देकर स्वयं की ईष्र्या भावना पर लीपापोती करने का प्रयत्न भी किया। सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ स्पर्धा ने असली सकारात्मक ईष्र्या पर काबू कर ईष्र्या को ही अपना मकसद बना लिया।

यह ईष्र्या यानी जलन पर व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा ने आग में घी डालने का काम किया और इस महत्त्वाकांक्षा से आतुर व्यक्तियों ने एक दूसरे से आगे निकलने के प्रयास में एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ में बेलिहाजी से काम ले, निम्न स्तर तक राजनीति भी करनी शुरू कर दी। आज इन महत्त्वाकांक्षाओं में संलिप्त व्यक्ति हिंसा तक की भी परवाह न करके अपनी महत्त्वाकांक्षा पूर्ण करने पर आमादा है। इस सामाजिक प्रतिस्पर्धा में उसने पहले के समय के सामुदायिक व्यवहार की हत्या कर डाली है। पहले का सौहार्द, परस्पर भाईचारा, सामुहिक तालमेल आधुनिक समाज की ईष्र्यालु महत्त्वाकांक्षा की भेंट चढ़ गया। वर्तमान समाज की यह घिनौनी देन है जो व्यक्ति रूपी इकाई से लेकर पूरे कुनबे, समाज, यहां तक राष्ट्रीय स्तर तक भी हावी है। आज मनुष्य जाति-पाति, धर्म के नाम पर नृशंस हत्याओं को भी अंजाम दे देता है। राजनेता अपनी व अपनी पार्टी की महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति की राह पर चलते-चलते कब वतन फरामोशी की राह पर चल पड़ते हैं पता नहीं चलता, जातीय हिंसा, धर्मिक उन्माद, समाज का बंटवारा, कत्लोगारत अपहरण, बलात्कार, खून खराबा, देश को तोडऩे की साजिशें, ईष्र्या जनित महत्त्वाकांक्षाओं की ही परिणीती स्वरूप हैं।

बचपन में पारिवारिक सदस्यों, सगे भाई-बहनों, स्कूल में सहविद्यार्थियों, कार्यालय में सहयोगियों, व्यापार में अन्य व्यापारियों के बीच मुकाबला, व्यावसायी व पेशेवरों में प्रतिस्पर्धा बड़े-बड़े प्रतिष्ठानों तक में परस्पर नीचा दिखाने की होड़ सकारात्मक स्पर्धा एक दिन नकारात्मक ईष्र्या बन परस्पर तालमेल ही नहीं खत्म करती, विरोधियों को खत्म करने की हद तक ही आ जाती है। नतीजा व निष्कर्ष यही है कि महत्त्वाकांक्षाओं ने सामुदायिक यानी इनसानी व्यवहार की हत्या का डाली है। जितना इस जहर से परहेज करेंगे जीवन उतना ही आनंदमय रहेगा। पुराना संवदेनशील समाज पुन: आएगा स्पर्धा को हिसंक ईष्र्या तक न खीचें।