अपने भाग्य का विधाता

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…
आधा कार्य तुमने किया शेष आधा बाह्य जगत ने पूरा कर दिया। इस तरह तुम्हें अघात मिला। यह हानि होने पर हम विनम्र हो सकेंगे। साथ ही इस आत्मविश£ेषण से आशा का स्वर भी सुनाई देगा। बाह्य जगत पर भले ही मेरा कोई वश न चलता हो, किंतु अपने आंतरिक जगत पर जो मेरे अत्यंत निकट है, मेरे अंदर ही है, तो मेरा नियंत्रण चल सकता है। यदि किसी असफलता के लिए इन दोनों का संयोग होना आवश्यक है।

यदि मुझे अघात लगाने के लिए दोनों का मिलन होना अनिवार्य है, तो मैं अपने अधिकार के जगत को इस कार्य में योग नहीं देने दूंगा। तब भला अघात क्यों कर लग सकेगा। यदि मैं सच्चा आत्मनियंत्रण पा लूं, तो मुझे अघात कभी नहीं लगेगा। अतएव अपनी भूलों के लिए किसी को दोष मत दो, अपने पैरों पर खड़े होओ और संपूर्ण दायित्व अपने ऊपर लो। कहो यह विपदा जिसे मैं झेल रहा हूं मेरी अपनी करनी का फल है। और इसी से सिद्ध है कि इसे मैं स्वयं ही दूर करूंगा। जिसकी रचना मैंने की, उसका विनाश भी मैं ही करूंगा। किंतु जिसे किसी अन्य ने बनाया है उसका विनाश भी नहीं कर पाऊंगा। अत: उत्तिष्ठत, निर्भीक बनो, समर्थ बनो। संपूर्ण उत्तरदायित्व अपने कंधों पर संभालो और समझ लो कि तुम ही अपने भाग्य के विधाता हो। जितनी शक्ति और सहायता तुम्हें चाहिए वह तुम्हारे अंदर ही है। अत: अपना भविष्य स्वयं बनाओ। भूत, अतीत को दफना दो।

अनंत भविष्य तुम्हारे सामने है। और सदैव स्मरण रखो कि प्रत्येक शब्द विचार और कृति तुम्हारे भाग्य का निर्माण करता है। जिस प्रकार बुरे कर्म और विचार व्याघ्र के समान तुम्हारे ऊपर झपटने को तैयार हैं, उसी प्रकार एक आशा की किरण भी है कि अच्छे कर्म और विचार सहस्रों देवदूतों की शक्ति से तुम्हारी रक्षा करने को भी तत्पर हैं।

वह स्वयं अपने भाग्य का निर्माता
बिना अधिकारी बने कोई कुछ नहीं पा सकता। यही सनातन नियम है। कभी-कभी हमें ऐसा लगता होगा कि शायद यह सही नहीं है किंतु अंतोगत्वा हमें इसका विश्वास होकर रहेगा। कोई व्यक्ति जीवनभर धनी बनने के लिए छटपटाता रहे, उसके लिए सहस्रों लोगों को ठगे किंतु अंत में एक दिन वह देखता है कि शायद धन्वान बनने के योग्य ही नहीं था और तब अपना संपूर्ण जीवन दूभर या विपदा दिखाई देता है। हम भले ही अपने इंद्रिय सुख के लिए अनेको साधनों को जमा करते रहें। किंतु उनमें से केवल वही हमारा है, जिसे हमने अर्जित किया है। एक मूर्ख संसार की समस्त किताबें खरीद डाले और वे सब उसके पुस्तकालय में सजी रहें, किंतु वह उनमें से केवल वही पढ़ पाएगा, जितने का वह अधिकारी है और यह अधिकार कर्म द्वारा उत्पन्न होता है।

हमारा कर्म निर्णय करता है कि हमारा कितना अधिकार है और हम कितना आत्मसात कर सकते हैं। स्वनिर्माण की शक्ति हमारे पास है। हम आज जो कुछ हैं यदि यह हमारे पिछले कर्मों का परिणाम है तो इससे निश्चित तर्क निकलता है कि जो कुछ हम भविष्य में बनना चाहते हैं, वह हमारे वर्तमान कर्मों का परिणाम होगा। अत: हमें विचार करना चाहिए कि हम कर्म कैसे करें।
सहायता भीतर से मिलेगी
हम रेशम के कीड़ों के तुल्य हैं। हम अपनी देह में से ही धागा कातते हैं और अपने चारों ओर एक कोया बुन लेते हैं और फिर कुछ समय पश्चात उसके अंदर बंदी हो जाते हैं। किंतु यह सदा नहीं रहेगा। उस कोये के भीतर रहकर हम आध्यात्मिक साक्षात्कार कर लेंगे और तितली के समान मुक्त होकर बाहर निकल आएंगे। – क्रमश: