शव संवाद-7

फिर शमशानघाट से लौटते सोचने लगा कि वही क्यों बुद्धिजीवियों की जमात का अंतिम व्यक्ति रह गया। वह हरसंभव कोशिश में जुटा था कि बुद्धिजीवियों की प्रजाति उसके बाद भी बची रहे। उसके मन में विचार आया कि कोई न कोई संपादक के रूप में उसे बुद्धिजीवी जरूर मिलेगा। हजारों संपादकों के बीच एक अदद भी मिल गया, तो उसकी खोज पूरी हो जाएगी। वह शमशानघाट से सीधे अखबारों और समाचार चैनलों के दफ्तर खटखटाने लगा। संपादकों का हुलिया तो बुद्धिजीवियों जैसा ही मिला, लेकिन उनकी रीढ़ पर भरोसा नहीं हुआ। बुद्धिजीवी ने पहली बार एक संपादक पर शक किया। उसकी तनख्वाह और उसकी कुर्सी पर संदेह किया। बुद्धिजीवी ने देखा कि कुछ संपादक कार्यालयों में थे। कुछ सडक़ पर, कुछ सरकार के सचिवालय में, तो कुछ मुख्यमंत्री के कक्ष में थे। कुछ एक पार्टी में, तो कुछ दूसरे पाले में थे। वहां सत्ता के भी थे अपने संपादक, इसलिए मीडिया का तर्कशास्त्र उस बेचारे बुद्धिजीवी को समझ नहीं आ रहा था। उसे एक बार तो लगा कि इन संपादकों के विमर्श से उसके पास बची बुद्धि भी कहीं खिसक न जाए। उसे विश्वास होने लगा कि संपादकों के कौशल में मीडिया और सरकार एक जैसे हो सकते हैं और तब देश और देश के लोकतंत्र की भविष्यवाणी करना कितना आसान होगा। उसे सत्ता में संपादक और सत्ता के जूते में देश का पांव एक जैसा दिखाई देने लगा।

अपने-अपने साइज के अनुसार संपादक की पैमाइश होते देखकर उसे आश्चर्य हुआ। तभी उसने मुख्यमंत्री कार्यालय के बाहर सरकार द्वारा मान्य संपादकों के नाम सूचना पट्ट पर देखे, तो इस पैमाइश से डर गया। इससे पहले कि सत्ता बुद्धिजीवी को माप पाती, वह शीघ्रता से वहां से बाहर निकल गया। जीवित संपादकों में किसी बुद्धिजीवी को न पाकर भी उसने खोज जारी रखी। उसे अकालग्रस्त माहौल में भी आशा थी कि शायद कोई ऐसा मिल जाएगा जो अपनी या शब्दों की खुद्दारी में कहीं मर रहा होगा या किसी जेल में सड़ रहा होगा। एक बार सोचा कि सत्तारूढ़ दल के प्रवक्ता से ही पूछ ले कि उनके राज में कोई मरने लायक संपादक बचा है, लेकिन उसे अपनी चिंता होने लगी। फिर सोचा कि अदालत से पता करूं कि कानूनन कितने संपादक इस लायक हैं जो मानहानि के अभियुक्त बनकर संविधान से पनाह मांग रहे हैं। वह अभी सोच ही रहा था कि उसने देखा एक लगभग पागल सा आदमी, लोगों के झुंड को यह समझाने की असफल कोशिश कर रहा था कि देश और लोकतंत्र के लिए क्या सही और क्या गलत है। वह पागल सा आदमी बोल तो सही रहा था, लेकिन भारत की जनता को न उसके आंकड़े, न ज्ञान, न अध्ययन, न शोध और न ही सत्य रास आ रहा था। वह उनके लिए एक तमाशा बना हुआ था।

अब तक बुद्धिजीवी समझ गया था कि इस देश में ऐसे संपादक बच गए हैं जो जनता के बीच सीधी व सच्ची बात रख सकते हैं, लेकिन व्हाट्स ऐप से पढ़ रहे लोगों को वह एकदम पागल लग रहा था। बुद्धिजीवी ने अपने सामने उसकी अखबार को फाड़ते हुए उन्हीं लोगों में से कइयों को देखा। उसकी अखबार लूटी जा चुकी थी। केवल अखबार का चीरहरण ही जनता नहीं कर रही थी, बल्कि अब वहां संपादक भी देशद्रोही घोषित हो चुका था। भीड़ एक ओर अखबारें जला रही थी, तो दूसरी ओर देशभक्ति के नारे लगा रही थी। संपादक देशद्रोही घोषित होते ही जनता के हत्थे ऐसे चढ़ा कि वह भी मरी हुई खबर की तरह हो गया। उसकी सांसें रुक गई थीं। भीड़ ने जैसे ही उसे शव बनाकर छोड़ दिया, बुद्धिजीवी ने अपना कंधा आगे कर दिया। शव के भीतर से आवाज आ रही थी, ‘देश प्रेम की खातिर पत्रकारिता को अब मरना होगा। मैं अपील करता हूं कि आइंदा कोई अखबार न पढ़े, क्योंकि पढऩे वालों में ही देशद्रोही मिलेंगे।’ शमशानघाट पहुंचते ही बुद्धिजीवी हैरान हुआ, संपादक की लाश को केवल रद्दी हो रही अखबारों से ही जलाया जा सकता था। जिन अखबारों की सुर्खियों ने कभी देश को जगाया था, आज वे सभी एक संपादक की लाश के साथ धू-धू जल रही थीं। अगले दिन संपादक के मरने की खबर छापने लायक भी कोई अखबार नहीं बचा था।

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक