कहा न, अच्छे दिन तो एक स्लोगन था!

नए-नए केन्द्रीय मंत्री थे। एक पार्टी में मिल गये। प्लेट में पांच-सात गुलाब जामुन रखे बारी-बारी से गटक रहे थे। मैंने भी अपनी प्लेट भरी और उनके पास पहुंच गया। गुलाब जामुन का एक पीस पेट में जमा कर मैंने मंत्री जी से पूछा-‘क्यों साब ये अच्छे दिनों की उम्मीद कब तक की जा सकती है।’ मेरी बात पर हंसने लगे और ‘इससे बढिय़ा अच्छे दिन क्या होंगे? हम लोग एक साथ गुलाब जामुन खा रहे हैं।’ मेरे मुंह का गुलाब जामुन बाहर आते-आते बचा, मैंने पूछा- ‘सर, यह तो पार्टी है। इसमें तो सभी खा रहे हंै। लेकिन आम आदमी की जद में गुलाब जामुन कब तक आयेगा? मेरा मतलब महंगाई पर लगाम लगाने से है।’ वे बोले-‘मैं सब समझ रहा हूं। देखिये आलू-प्याज को तो हमने सुरक्षित कर लिया है। चीनी के दाम बढ़ाकर उसे भी लगभग स्थिर कर दिया है। भाई चुनाव में हमने 15 हजार करोड़ खर्च किये हैं। जिनसे लिया है, उनको चुकाना भी तो है। एक बार यह देनदारी खत्म हो जाये, बाद में महंगाई को पूरी तरह काबू में कर लेंगे।’ मैंने कहा-‘यह तो बड़ा लम्बा प्रोसेस है। तब तक नये चुनाव आ जायेंगे और आप कार्पोरेट से फिर धन ले लेंगे और देनदारी हो जायेगी। इस तरह तो आपका घोषणा-पत्र रद्दी की टोकरी में चला जायेगा।’ मंत्री जी बोले- ‘देखो भाई यह तो एक प्रोसेस है। अच्छे दिन तो हमारा एक स्लोगन था, जिसे जनता ने सच मान लिया। इसमें हमारी क्या गलती है। चुनाव जीतने के लिए पता नहीं क्या-क्या झूठे-सच्चे वायदे करने पड़ते हैं।’ मंत्री जी की बात सुनकर मैंने कहा – ‘सर, इससे तो आपका भी हश्र पहले वालों की तरह होगा। जनता आपको पटखनी दे देगी।’ ‘चुनाव नागनाथ और सांपनाथ वाला खेल है। इसमें विकल्प तो कुछ होता नहीं। इसलिए ज्यादा परेशान होने की बात नहीं है।

वैसे भी हमने अच्छे दिनों के लिए जनता से दो टर्म मांगे हैं। हमारे नेताजी बोलने में इतने पटु हैं कि मुझे तो दो दशक तक गुलाब जामुन खाने से कोई रोक नहीं सकता।’ मंत्री जी ने कहा। ‘यह तो सरासर धोखा है। आप इस तरह जनता की आंखों में धूल कैसे झोंक सकते है?’ मैंने कहा तो वे बोले -‘देखो शर्मा, ज्यादा देश की चिंता में अपने आप को दुबले मत होने दो। यह हमारा मामला है। जैसा भी होगा सलटा लेंगे। कांदा सस्ता है, रोटी उसी से खाओ। व्रत के दिन आलू उबाल कर खा लो। अब तुम चाहो कि जनता को दोनों टाइम गुलाब जामुन मिले तो भाई यह हमारे हाथ में नहीं है। महंगाई कम करने के लिए हम लोग कैबिनेट की मीटिंग धड़ाधड़ कर रहे हैं। अब यह मरी सुरसा जैसी, महंगाई का तो हम अकेले कर भी क्या सकते हैं।’ मैं बोला-‘इसका मतलब तो अच्छे दिन नहीं आयेंगे?’ वे बोले, ‘मैंने कहा न, अच्छे दिन तो स्लोगन था। उसे सत्य मानना बेवकूफी। वैसे भी अच्छे दिन फील गुड की तरह हैं। महसूस करो तो हर दिन अच्छा है। रहा रात का सवाल, हमने इसके लिए शराब के ठेके बढ़ा दिये हैं। पी लो तो नींद अच्छी आयेगी। अब तुम्हारी अपेक्षाएं बढ़ गई हैं, तो पी. एम. क्या करें।’ मैंने कहा-‘पी.एम. उनका वादा था, अच्छे दिनों का।’ मंत्री जी झल्ला कर बोले-‘क्या अच्छे दिनों की रट लगा रखी है। एक बार बता दिया कि अच्छे दिन तो स्लोगन था। बिना मतलब माथा खा गये। हटो दूर में किसी और से मिलता हूं।’ यह कहकर मंत्री जी ने गुलाब जामुनों से फिर प्लेट को भरा और वे भीड़ में घुस गये। मुझे काटो तो खून नहीं।

पूरन सरमा

स्वतंत्र लेखक