प्रशासनिक ट्रिब्यूनल के द्वार

हिमाचल कर्मचारियों के हितों का मक्का है और इसीलिए प्रदेश के संसाधन इस वर्ग को पूजनीय-वंदनीय बना देते हैं। कमोबेश हर सरकार को अपने संसाधनों से इसी प्रक्रिया में खुद को अव्वल साबित करने के लिए सामग्री जुटानी पड़ती है। राज्य ने कर्मचारी मुद्दों को इतनी तरजीह दे डाली है कि अब राजनीति के डाली-डाली इनके प्रति झुकी रहती है। ओल्ड पेंशन की गोल्ड माइन खोल कर सत्ता में आई कांग्रेस अब प्रशासनिक ट्रिब्यूनल के रास्ते कर्मचारी वर्ग के अधिकारों को न्योता दे रही है। प्रशासनिक ट्रिब्यूनल एक तरह की सियासी रस्साकशी बनता रहा है। कर्मचारी वर्ग को कानूनी हक दिलाने के लिए बार-बार इसके दरवाजे खोले जाते हैं या फिर सारे दांव या कानूनी पेंच अदालत के मार्फत संबोधित किए जाते हैं। पूर्ववर्ती जयराम सरकार ने कर्मचारी कवच को प्रशासनिक ट्रिब्यूनल से उखाडक़र माननीय अदालत के दायरे तक पहुंचा दिया था। उस समय इक्कीस हजार कर्मचारी मामलों का दहेज अदालत के दरवाजे पहुंच गया था और अब फिर कवायद यह कि इस विषय को स्वतंत्र ट्रिब्यूनल के अधीन लाया जाए। दोनों ही तरह के फैसलों के तर्क कर्मचारी वर्ग के लिहाज से महत्त्वपूर्ण रहे हैं, फिर भी हर परिस्थिति के संकट, निर्णयों की गति तथा नए मामलों की प्रगति आड़े आती है। कर्मचारी मामलों के संदर्भ प्राय: ट्रांसफर पालिसी न होने के कारणों से टकराते हैं। वेतन विसंगतियों, स्तरोन्नत होने के मसले तथा कॉडर से संबंधित मामले जब इक_े होते हैं, तो इन्हें निपटाने का दबाव एडिय़ां रगड़ता है। जाहिर है प्रशासनिक ट्रिब्यूनल की स्थापना का उद्देश्य तथा ऐसी पद्धति के कार्यान्वयन से सहजता व सरलता का तकाजा दिखाई देता है, लेकिन व्यावहारिकता के प्रश्र पर कानून के दस्तखत बदल जाते हैं।

वही कानून अदालत की परिपाटी में अपनी परंपरा और निष्पक्षता की दृढ़ता से विश्वास तो पैदा करता है, लेकिन कर्मचारी मामलों के निपटारे समयावधि तय नहीं करते। इसके विपरीत प्रशासनिक ट्रिब्यूनल की सार्थकता में कानून की गतिशीलता व विकेंद्रीयकरण स्पष्ट है। प्रशासनिक ट्रिब्यूनल अपनी परिपाटी में मंडी व धर्मशाला की सर्किट बैंच के जरिए न केवल कर्मचारी वर्ग के नजदीक पहुंचती है, बल्कि न्याय पाने की क्षमता को सहज व सस्ता बनाती है। हिमाचल के परिप्रेक्ष्य में कानूनी ढांचे की यह विसंगति हर पहलू में रही है और इसीलिए हाई कोर्ट की सर्किट या स्थायी खंडपीठ की मांग पिछले चालीस सालों से धर्मशाला के लिए हो रही है। ऐसे में कर्मचारी मामलों की मात्रात्मक अर्जियों को शिमला में हाई कोर्ट का समय व प्राथमिकता नहीं मिल पाती। यह दीगर है कि फैसलों की गुणवत्ता पर प्रश्र उठाते हुए भाजपा की अलग-अलग सरकारों ने कर्मचारियों को हाई कोर्ट का बार-बार विकल्प दिया, लेकिन इक्कीस हजार मामले अगर स्थानांतरित हो जाएं, तो अदालत के लिए इनमें अपनी प्राथमिक भूमिका निभाना कठिन हो जाएगा। ऐसे में फिर एक नए प्रयोग के तहत सुक्खू सरकार ने प्रशासनिक ट्रिब्यूनल के दरवाजे खोलने की इच्छा प्रकट की है। अभी इससे संबंधित प्रक्रिया ने दस्तक दी है और इसे मुकम्मल होने की स्थिति तक कुछ समय का इंतजार रहेगा। दोनों विकल्पों के बावजूद न हाई कोर्ट में मामले घटे और न ही प्रशासनिक ट्रिब्यूनल के रास्ते कर्मचारी मसले कम हुए।

कानून की शरण में कर्मचारियों के लिए सुविधाजनक मानी गए प्रशासनिक ट्रिब्यूनल व्यवस्था के बावजूद निष्कर्ष यही है कि कॉडर-कॉडर, पद-पद और दफ्तर-दफ्तर, कार्य संस्कृति सुधारने से कहीं अधिक दबाव यह है कि हजारों कर्मचारी कानूनी दांव-पेंच तक ही सिमट रहे हैं। पिछले काफी वर्षों से प्रदेश सरकारों ने कर्मचारी मसलों को तरजीह देते हुए उचित-अनुचित के बजाय उनके स्वार्थों को ही पोषित किया। न कभी प्रशासनिक सुधारों पर कोई महत्त्वपूर्ण फैसला हुआ और न ही सरकारी कार्यसंस्कृति में सुधार लाने के गंभीर प्रयास हुए। आश्चर्य यह कि हर साल सैकड़ों ट्रांसफर मामलों की आपत्तियां कानून की शरण पहुंच रही हैं, लेकिन न कोई ठोस स्थानांतरण नियम या नीति बनाने की जहमत उठाई गई और न ही कार्य संस्कृति को अहमियत मिली। ऐसे में क्या उस आम नागरिक या मतदाता की सरकार से अपेक्षाएं पूरी हो रही हैं। उसकी शिकायतों का निपटारा करने वाला स्थायी अमला न दफ्तर में और न ही दिल में यह तस्दीक करता है कि सरकार का आधारभूत काम क्या है। कानून की पहुंच में कर्मचारी वर्ग के तो अधिकार सुनिश्चित हैं, लेकिन सरकार की पहुंच से दूर आम आदमी के लिए बस एक ढर्रा है।