अदृश्य लोग…

आज़ादी के बाद नियति के साथ किए गए साक्षात्कार में भारतीय जनतंत्र से उम्मीद थी कि वह अदृश्य लोगों की आवाज़ सुनेगा। इसकी बनावट में सबकी आवाज़ गूँजे भले न, सुनाई अवश्य देगी। नेहरू तो निकम्मे थे, लेकिन आज़ादी के पचहत्तर सालों बाद अमृत काल लाने का दावा करने वाले दिल्ली में बैठे हुए मणिपुर की आग में मज़े से हाथ सेंक रहे हैं। शायद अभी मणिपुर जाकर चुनावी रोटियाँ सेंकने का मौसम नहीं आया है। भले मनु स्मृति के संवाहक संविधान पर भारी पड़ रहे हों, पर भारत को विश्व गुरू बनाने का दावा करने वाले डंकेश स्वयं, एक अकेले को सब पर भारी बताते हैं। इसी उधेड़बुन में पाता हूँ कि कुछ महीनों बाद चुनावी खेतों में जुताई-बुआई शुरू हो जाएगी। विपक्ष अब अनुसूचित जातियों और जनजातियों के साथ ओबीसी की आवाजों को भारतीय जनतंत्र में तलाशने का ढोंग कर रहा है। आज़ादी के पचहत्तर साल गुजऱने के बावजूद अदृश्य लोगों के पास सिर हैं तो किताबें नहीं, खेत हैं तो किसानी नहीं, हाथ हैं तो रोजग़ार नहीं, पेट हैं तो राशन नहीं। महाकाल की नगरी उज्जैन में बारह साल की किसी पार्वती को कोई कामी नोच डालता है। महाकाल का पता नहीं। पर अपनी टूटी-फूटी आवाज़ों को लोकतंत्र में सुनाने के माध्यम नेता, पार्लिया नक्सल होने के बाद नफरती चारा खाकर राष्ट्रवाद की जुगाली में मस्त हैं या संसद के कुएँ की अनगिन सुख-सुविधाओं की भाँग पीकर शूकर की तरह लोट रहे हैं। तीन दशकों से श्रीराम की भीड़ में अपना पेट काट कर मंदिर के लिए चंदा देने वाले लोग अदृश्य ही रहे, लेकिन कितने चिंदी चोर चेहरे बन कर चंदा चोर हो गए। मन्दिर बनने के बाद मूरत राम की होगी, लेकिन अदृश्य चेहरों के चंदे और दान से ये चंदा चोर अपनी चांदी करते रहेंगे।

कि़स्मत की अदृश्य स्याही से लिखे इन लोगों के नाम माइक्रोस्कोप से देखने पर भी नजऱ नहीं आते। कृषि क़ानूनों के खिलाफ अड़े किसानी करने वाले लाखों अदृश्य चेहरे तब तक अदृश्य ही बने रहे, जब तक चुनाव लोकतंत्र के सिर पर चुनाव खड़े नहीं हो गए। चुनाव आते ही ये अदृश्य लोग जो कभी आतंकवादी, खालिस्तानी, राष्ट्रविरोधी या नक्सल थे, वोट में बदल गए। देवताओं के देवता डंकेश अपने गुट के देवों को ख़ूब पहचानते हैं और उन्हें अदृश्य चेहरों के खिलाफ की गई उद्दंडता का भरपूर ईनाम भी देते हैं। पर अदृश्य लोग तब तक गोचर नहीं होते जब तक लोकतंत्र का महापर्व सामने नहीं आता। इस महापर्व के आते ही किसी रविवारीय हाट की तरह लोकतंत्र जीवंत हो उठता है। पर बाज़ार उठते ही चारों ओर घूरे के ढेर नजऱ आने लगते हैं। सालों से अदृश्य चेहरों पर फैलता पराबैंगनी प्रकाश बीते एक दशक में इतना गहरा गया है कि नया संसद भवन भी धर्मों के चेहरे नहीं छोड़ पा रहा है। धर्मों के इन चेहरों में कोई कटवा या मुल्ला, जो जेनऊ या चोटी की तरह माननीय होते हुए उन असंख्य अदृश्य चेहरों की रहनुमाई करता दिखता है जो उसकी पीठ के पीछे कहीं अगोचर हो चुके हैं। अराजकता इस देश की नई क़ानून व्यवस्था है, जो अब जात-धर्म के हिसाब से न्याय बाँटती है। चाल्र्स डार्विन आज जिंदा होते तो शायद मूर्खता के विकास का नया सिद्धांत प्रदिपादित करते हुए कहते कि पिछले एक दशक में ट्रोल आर्मी ने अपने दिमाग़ को ताखे पर रखकर भारत में मूर्खता के विकास आन्दोलन को नई दिशा और गति प्रदान की है।

अपनी गहन छानबीन में वह अंधभक्तों और चमचों को परिभाषित करते हुए उनकी महती व्याख्या कर सकते थे। अपनी प्रयोगशाला में शायद वह उन मूर्खों के दिमाग़ खोलना पसन्द करते जो वर्ष 2014 को भारत की आज़ादी या विकास की गंगा के फूटने का साल मानते हैं। शायद उनमें ऐसे माननीय भी शामिल होते, जो डंकेश को विष्णु का ग्यारहवां अवतार या देवों के देव मानते हैं, नाले की गैस से चाय बना सकते हैं या संसद में प्राप्त विशेषाधिकार का इस्तेमाल करते हुए अपने लाल बुझक्कड़ होने का सुबूत पेश करते हैं। उनका यह प्रयोग भारतीयों के विलोपन के सिद्धांत के सूत्रों की खोज और व्याख्या में नई क्रांति ला सकता था।

पीए सिद्धार्थ

स्वतंत्र लेखक