लेट्स सेलिब्रेट…

अपने तमाम आमों और खासों को सार्वजनिक करते हुए अपार प्रसन्नता हो रही है कल मैंने अपनी अक्ल दाढ़ भी निकलवा ली है। असल में ये मेरी अक्ल दाढ़ मुझे लंबे समय से बीवी से भी अधिक परेशान किए थी। सच कहूं तो बेरोजगारी के दिनों में बेरोजगारी से मैं उतना परेशान नहीं हुआ जितना इस अक्ल दाढ़ की परेशानी की वजह से हुआ। सच कहूं तो महंगाई से भी मैं उतना परेशान नहीं हुआ जितना इस अक्ल दाढ़ की वजह से हुआ। अक्ल का फकीर होने के बाद जब ये बीच बीच में मुझे परेशान करती तो लगता ज्यों मेरी सब परेशानियों की वजह जो कोई है तो बस, यह अक्ल दाढ़ ही है। इसके साथ अक्ल संबोधन लगा होने के चलते। तब सोचता, काश! मेरे केवल दाढ़ ही होती। अक्ल दाढ़ न होती। फिर सोचा, उनकी तरह इस दाढ़ का नाम ही बदल लूं। पर नाम बदलने से परेशानियां कहां कम हुई हैं जनाब! मन बहल जाता है बस! लंबे अरसे से इस बदतमीज अक्ल दाढ़ की परेशानी की वजह से मेरा बाहर का खाना पीना सब बंद सा हो गया था। इसकी वजह से अपने दोस्तों तक के बीच मेरा उठना बैठना लगभग बंद सा हो गया था। उन्हें लगता था कि मेरे पास अक्ल न होने के बाद भी मैं अक्ल दाढ़ से जुड़ा हुआ हूं। अक्ल न होने के बाद भी अक्ल दाढ़ के भार को गधे की तरह ढो रहा हूं। वैसे मित्रो! जिनके पास अक्ल भी है, वे कौनसा अपने दड़बे से बाहर निकल पाए हैं? उसका सदुपयोग कर पाए हैं? जब केवल और केवल अपने बारे में तो बिन अक्ल के भी बड़े मजे से सोचा जा सकता है तो फिर बेकार में अक्ल का बेकार का भार सिर पर ढोने से क्या फायदा! पहले ही जीवन में और भार क्या कम हैं, जो अब एक अक्ल के भार को भी गधा बन ढोया जाए? हे अक्ल वालो! स्मरण रहे, समाज अक्ल के सेठों को भर भर मुंह उनकी पीठ के पीछे ही नहीं, अब तो उनके मुंह पर भी छाती ठोंक ठोंक कर गालियां देने लगा है।

मैं तो कहता हूं कि जब अपने बारे में अक्ल वालों से अधिक बिन अक्ल के तटस्थता और ईमानदारी से सोचा जा सकता है तो शरीर पर नाक के बाद एक और फालतू पुर्जा क्यों। हे मेरे शुभचिंतको! मुझे इस बात की खुशी है कि मैं बेअक्ला जिंदगी में सब कुछ रहा, पर किसी का भी कतई भी दिखावे को भी शुभचिंतक न रहा। उसके बाद भी जो मेरे शुभचिंतक रहे, उनका तहेदिल से आभार। अच्छा लगता है जब पाता हूं कि एकतरफा प्रेमियों के साथ साथ एकतरफा शुभचिंतक अभी भी जैसे कैसे जिंदा है। क्यों जिंदा हैं, वे ही जाने। मित्रो! अब आपसे अक्ल वालों की तरह छुपाना क्या! सच कहूं तो मेरे पास अक्ल पैदाइशी ही नहीं थी। बस, अक्ल के नाम पर केवल ये दाढ़ ही थी। इसलिए जितना हो रहा था, बस, मन छलावे को इसी से अक्ल का काम चला रहा था। वैसे जिस आदमी के पास अक्ल न हो वह तीनों कालों में सुखी रहता है, तीनों लोकों में सुखी रहता है। उसे कतई भी चिंतन मनन करने की जरूरत नहीं होती। करे तो तब जो जिसके पास अक्ल हो। इसलिए उसे चिंतन करते परेशान होने की भी जरूरत नहीं होती। उसे इस बात से भी कोई लेना देना नहीं होता कि उसके बारे में कोई क्या सोच रहा है। खैर, किसी के बारे में तो वह सोचता ही नहीं। सोचे तो तब जो उसके पास अक्ल हो। आदमी के पास माइंड होना सौ बीमारियों की जड़ होना है। आदमी के पास माइंड हो तो वह अपने भले के बारे में ही सोचने के बाद भी कभी कभी दूसरों के भले के बारे में भी सोच सा लेता है। कभी जो बहुत ही फ्री हो तो अच्छे बुरे के बारे में भी सोच लेता है। माइंड वाला आदमी न माइंड करने वाली बातों को भी बहुत माइंड करता है। माइंड वाला आदमी माइंड करने योग्य बातों को तो माइंड करता ही है, पर उन बातों को भी माइंड करता है, जिन्हें आसानी से अनमाइंड किया जा सकता है। ऐसा होने पर माइंड वाले का माइंड खराब हो जाता है। माइंड खराब होने से बीसियों ऐसी वैसी बीमारियां लग जाती हैं। इसलिए इन सब बीमारियों से छुटकारा पाने के लिए जरूरी है कि आदमी माइंड हीन हो जाए। माइंड दाढ़ विहीन हो जाए।

अशोक गौतम

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