हिमाचली कलाकारों की उपेक्षा

कुल्लू दशहरा यूं तो हिमाचली संस्कृति के नाम एक पैगाम है, लेकिन आश्चर्य यह कि कुल सात सांस्कृतिक संध्याओं में से केवल एक ही प्रदेश के कलाकारों के नाम होगी। यानी जिस दशहरा की बदौलत हिमाचल की देव संस्कृति सारे देश को आमंत्रित करेगी, वहां 85 फीसदी कार्यक्रम गैर हिमाचली कलाकारों के नाम होंगे। यह चयन की पराकाष्ठा है जो ऐसे अवसर को बालीवुड व पंजाबी कलाकारों के नाम ही नहीं करती, बल्कि समारोह के नाम पर की गई उगाही भी बाहरी कलाकारों में बांट देती है। हिमाचल एकमात्र ऐसा राज्य है जहां राज्य स्तरीय सांस्कृतिक समारोह भी बिना किसी परिपाटी के प्रशासनिक व सियासी चाटुकारिता में गुम हो रहे हैं। सुक्खू सरकार से व्यवस्था के सांस्कृतिक दायरे में जबरदस्त परिवर्तन की गुजारिश है ताकि ऐसे समारोह प्रदेश के पर्यटन परिदृश्य को मजबूत करें। सांस्कृतिक व धार्मिक समारोहों के अलावा मंदिर व्यवस्था का एक प्रादेशिक ढांचा निर्मित होना चाहिए ताकि संसाधनों का सही इस्तेमाल हो सके। मंदिर व्यवस्था के लिए एक केंद्रीय ट्रस्ट व प्राधिकरण का गठन स्थायी रूप से धार्मिक पर्यटन की योजनाओं-परियोजनाओं का संचालन करके आय को कम से कम पांच हजार करोड़ तक ले जा सकता है। इसी तरह क्षेत्रीय व ग्रामीण मेलों, सांस्कृतिक समारोहों तथा व्यापारिक मेलों के लिए एक मेला विकास प्राधिकरण का गठन करके आय-व्यय की पारदर्शी व्यवस्था अमल में लाई जा सकती है।

मेला विकास प्राधिकरण के तहत प्रदेश के मेला ग्राऊंड, व्यापारिक प्रदर्शनियां तथा सांस्कृतिक समारोहों की एक परिपाटी बनाएंगे, तो हिमाचल के हर कलाकार को प्रतिभा दिखाने का अवसर मिलेगा। कलाकारों का चयन वार्षिक कांट्रैक्ट के तहत अगर किया जाए, तो लगभग सौ के करीब सांस्कृतिक समारोहों के आयोजन से कला को रोजगार पाने का अवसर मिलेगा। विडंबना यह है कि जिलावार आयोजनों का मकसद सांस्कृतिक रहा ही नहीं, बल्कि कुछ दलालों के मार्फत बाहरी कलाकारों पर सबसे अधिक व्यय किया जा रहा है। ऐसे में इन समारोहों में कला, संस्कृति एवं भाषा विभाग व अकादमी ढूंढे नहीं मिलते। समारोहों में पचास से साठ करोड़ तक खर्च होने के बावजूद हिमाचल के सांस्कृतिक पक्ष का समर्थन नहीं किया जा रहा। सांस्कृतिक समारोहों की न तो आय तय है और न ही व्यय, बल्कि एक फर्ज अदायगी के रूप में प्रशासन अपनी भूमिका निभाता है, जबकि राजनीति इसे भी अपने प्रचार और प्रभाव का मंच बनाने से नहीं चूकती। हमसे तो बेहतर अन्य राज्य हैं जहां सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अलावा तीज-त्योहारों, व्यापारिक मेलों, पुस्तक मेलों के अलावा फल उत्सव भी मनाए जा रहे हैं।

जाहिर तौर पर हिमाचल में भी मेलों एवं सांस्कृतिक समारोहों का संचालन एक स्वतंत्र मेला विकास प्राधिकरण के तहत होगा, तो निरंतरता के साथ वित्तीय अनुशासन, विविधता, मनोरंजन के अलावा मेलों की अधोसंरचना भी विकसित होगी। इसी के साथ अगर मंदिर विकास प्राधिकरण भी देव स्थलों को सांस्कृतिक केंद्रों के रूप में विकसित करें, तो धार्मिक पर्यटन की नगरियां स्थानीय कलाकार को प्रश्रय देंगी और इनके माध्यम से हिमाचल की लोक गीत-संगीत, रंगमंच व कलाओं की परंपरा को संबल मिलेगा। प्रदेश के आधा दर्जन बड़े मंदिरों की आय से अगर सांस्कृतिक केंद्रों के तहत प्रदर्शनी हाल व आधुनिक सभागार निर्मित करें, तो आगे चलकर धार्मिक पर्यटन की संगत में कला क्षेत्र समृद्ध होगा। बहरहाल कुल्लू दशहरा के मंच पर हिमाचल को उस समय हिमाचल ढूंढना पड़ेगा, जब रात्रि के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में पंजाबी या बालीवुड कलाकारों के लिए सारी संभावनाएं अर्पित हो जाएंगी। यह हमारी संस्कृति, लोक जीवन की पहचान के अलावा भाषायी दृष्टि से भी अपमान है कि हमारे मंच अपने वार्षिक अनुष्ठान में बाहरी कलाकारों के नाम पर हुल्लड़ परोस रहे हैं। कहीं तो सांस्कृतिक कार्यक्रमों की ऐसी रूपरेखा तय होनी चाहिए, ताकि हिमाचल अपनी संगीतमय अभिव्यक्ति में अपनी जड़ों को नमन कर सके, वरना यह महफिल अपनी ही माटी का अपमान करती रहेगी।