सियासत की बिच्छू बूटी

सियासत में कभी जंग नहीं लगता, फिर भी यह मंच स्थायी शांति का आश्वासन नहीं। सियासत देश के समीकरणों में हिमाचल के लिए भी अवसर देती है, तो मौके की तलाश में सीढिय़ां घूमने लगती हैं। ऐसे में प्रश्न यह कि क्या हिमाचल भाजपा में शांति है या अनुशासन की नई परिपाटी में कांग्रेस के भीतरी मतभेद खत्म हो गए। भाजपा को देखने के लिए विपक्ष में उसकी पारी हिमाचल में करतब दिखा रही है, तो केंद्रीय सत्ता के जरिए उसका नया मुकाम असमंजस से लड़ रहा है। हिमाचल में सत्ता के बनते-बिगड़ते फलक पर एक बार फिर कांगड़ा, हाथ-मुंह धो रहा है। न शगुन भाजपा को मिल रहा है और न ही कांग्रेस की सत्ता का नशा यहां की उदासी पर चढ़ रहा है। यह राजनीति का स्थायी अत्याचार है, जो इस जिला को हिमाचल में स्थापित नहीं कर रहा या इसे इतना खोखला कर दिया है कि यहां के नेताओं को लगातार दोनों पार्टियों के आलाकमान कूड़ेदान की वस्तु मान चुके हैं। ऐसे में यह तो माना जा सकता है कि विद्रोह की राजनीति में कांगड़ा के साथ-साथ चंबा तक के संसदीय क्षेत्र में भी घुन लग चुका है। कांग्रेस के बड़े नेता राहुल गांधी ने अन्य पिछड़ा वर्ग के मुद्दे पर मोदी सरकार को लगभग घसीट दिया है, लेकिन उन्हीं के सिपहसालार प्रदेश की सियासी हवा में कांगड़ा जिला को ही सत्ता में पिछड़ा बना चुके हैं। सत्ता में आने के लिए हर पार्टी को कांगड़ा का गुस्सा चाहिए, लेकिन सत्ता में आने के बाद मुस्कराहट छीनने का सौ फीसदी मसाला-फार्मूला तैयार हो चुका है। बेशक भाजपा पूछती रही है कि कांग्रेस सरकार में कांगड़ा की हिस्सेदारी मुकम्मल क्यों नहीं हुई, लेकिन उसका अपना आचरण भी सरकार बनते ही दुर्ग बदल लेता रहा है।

पिछली भाजपा सरकार ने हालांकि कांगड़ा से मंत्रियों का कोटा एक हद तक बरकरार रखा, लेकिन विभागों की फेहरिस्त में मंत्रियों के हिस्से इतना बजट नहीं आया कि वे अपनी रंगत दिखा पाते। इसी परिप्रेक्ष्य में खोट इतना बढ़ा कि पूरा जिला उसकी पकड़ से खिसक गया। अब भी हाल यह है कि एकमात्र कृषि मंत्री के दायित्व में आए बजट से कांगड़ा के आर्थिक खेत में भूसा ही दिखाई दे रहा है। यह दीगर है कि पर्यटन के नाम पर कुछ बड़ी परियोजनाओं का जिक्र और गगल एयरपोर्ट विस्तार के नाम पर सरकार अपने संतुलन की हिफाजत कर रही है, लेकिन लगभग एक साल से मंत्रिमंडल विस्तार के ताले अभी तक खुले नहीं हैं। ऐसे में कांग्रेस का राजनीतिक संतुलन एक गूढ़ रहस्य की तरह लडख़ड़ा रहा है। दूसरी ओर भाजपा की ओर से संसद में धकेले गए किशन कपूर को क्या पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव की उम्मीदवारी से भी धकेल पाएगी। उनकी रहनुमाई में कांगड़ा-चंबा का आक्रोश अभी हाशिए पर नहीं पहुंचाया जा सका है और पार्टी के भ्रम को तोड़ते हुए पुराने मंत्री-विधायकों ने इसे फिर से तसदीक करते हुए उन्हीं के निवास पर जमावड़ा बना डाला है।

हिमाचल में कांग्रेस और भाजपा के सुपर स्टार जिस तरह दोनों पार्टियों के आलाकमान बना रहे हैं, उससे पुराने युग की वापसी का रास्ता खत्म हो चुका है। भाजपा के सक्षम, दृढ़ व निर्णायक नेता के रूप में अब न तो शांता कुमार सरीखा कोई नेता देखने को मिलेगा और न ही वाईएस परमार व वीरभद्र सिंह जैसी जगह पर किसी कांग्रेसी को पार्टी देखना चाहेगी। दोनों ही पार्टियां छोटे राज्य के बड़े जिला के महत्त्व को गौण कर रही हैं। भले ही कांग्रेस अपनी हिमाचल व कर्नाटक में जीत का ढोल पीट कर भाजपा की सांसें फुला रही हो, लेकिन अपने घर के आंगन में फैल रहे असंतोष की बिच्छू बूटी को नहीं पहचान रही। कहना न होगा कि बिच्छू बूटी दूर से शांत दिखाई देती है, लेकिन जिस दिन इसकी टोह में हल्का सा भी स्पर्श होगा, अजीब सी छूअन में खून सारी चमड़ी को लाल कर देगा।