परमात्मा का अंश

श्रीराम शर्मा
मैं क्या हूं? मैं कौन हूं? मैं क्यों हूं? इस छोटे से प्रश्न का सही समाधान न कर सकने के कारण ‘मैं’ को कितनी विषम विडंबनाओं में उलझना पड़ता है और विभीषिकाओं में संत्रस्त होना पड़ता है, यदि यह समय रहते समझा जा सके तो हम वह न रहें, जो आज हैं। वह न सोचें जो आज सोचते हैं। वह न करें जो आज करते हैं। हम कितने बुद्धिमान हैं कि धरती आकाश का चप्पा-चप्पा छान डाला और प्रकृति के रहस्यों को प्रत्यक्ष करके सामने रख दिया। इस बुद्धिमता की जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम और अपने आपके बारे में जितनी उपेक्षा बरती गई उसकी जितनी निंदा की जाए वह भी कम ही है। जिस काया को शरीर समझा जाता है क्या यही मैं हूं? क्या कष्ट, चोट, भूख, शीत, आतप आदि से पग-पग पर व्याकुल होने वाला अपनी सहायता के लिए बजाज दर्जी, किसान,रसोइया, चर्मकार, चिकित्सक आदि पर निर्भर रहने वाला ही मैं हूं?

दूसरों की सहायता के बिना जिसके लिए जीवन धारण कर सकना कठिन हो, जिसकी सारी हंसी-खुशी और प्रगति दूसरों की कृपा पर निर्भर हो, क्या वही असहाय, असमर्थ, मैं हूं? मेरी आत्म निर्भरता क्या कुछ भी नहीं है? यदि शरीर ही मैं हूं तो निस्संदेह अपने को सर्वथा पराश्रित और दीन, दुर्बल ही माना जाना चाहिए। परसों पैदा हुआ, खेल-कूद, पढऩे-लिखने में बचपन चला गया। कल जवानी आई थी, नशीले उन्माद की तरह आंखों में, दिमाग में छाई रही। चंचलता और अतृप्ति बेचैन बनाए रही, आज ढलती उम्र आ गई। शरीर ढलने गलने लगा, इंद्रियां जवाब देने लगी। सत्ता, बेटे, पोतों के हाथ चली गई। लगता है एक उपेक्षित और निरर्थक जैसी अपनी स्थिति है।

अगली कल यही काया जरा जीर्ण होने वाली है। अपाहिज और अपंग की तरह कटने वाली जिंदगी कितनी भारी पड़ेगी। यह सोचने को जी नहीं चाहता वह डरावना और घिनौना दृश्य एक क्षण के लिए भी आंखों के सामने आ खड़ा होता है रोम-रोम कांपने लगता है। पर उस अवश्यंभावी भवितव्यता से बचा जाना संभव नहीं। जीवित रहना है तो इसी दुर्दशा ग्रस्त स्थिति में पिसना पड़ेगा। बच निकलने का कोई रास्ता नहीं। क्या यही मैं हूं? क्या इसी निरर्थक विडंबना के कोल्हू के चक्कर काटने के लिए ही ‘मैं’ जन्मा? क्या जीवन का यही स्वरूप है? मेरा अस्तित्व क्या इतना ही तुच्छ है।

आत्म चिंतन कहेगा, नहीं-नहीं-नहीं। आत्मा इतना हेय और हीन नहीं हो सकता। वह इतना अपंग और असमर्थ, पराश्रित और दुर्बल कैसे होगा? यह तो प्रकृति के पराधीन पेड़-पौधों जैसा, मक्खी, मच्छरों जैसा जीवन हुआ। क्या इसी को लेकर, मात्र जीने के लिए मैं जन्मा। सो भी जीना ऐसा जिसमें न चैन, न खुशी, न शांति, न आनंद, न संतोष। यदि आत्मा सचमुच परमात्मा का अंश है तो वह ऐसी हेय स्थिति में पड़ा रहने वाला हो ही नहीं सकता। या तो मैं हूं ही नहीं। नास्तिकों के प्रतिपादन के अनुसार या तो पांच तत्त्वों के प्रवाह में एक भंवर जैसी क्षणिक काया लेकर उपज पड़ा हूं और अगले ही क्षण अभाव के विस्मृति गर्त में समा जाने वाला हूं। या फिर कुछ हूं तो इतना तुच्छ और अपंग हूं जिसमें उल्लास और संतोष जैसा गर्व और गौरव जैसा कोई तत्त्व नहीं है।