हार गए तो हार गए…

मैंने कहा-‘अमां यार परेशान क्यों होते हो, हार गये तो हार गये।’ वे बोले-‘यह बात नहीं है।’ मैंने पूछा-‘तो क्या बात है?’ बोले-‘वे जीत गये न।’ ‘तो क्या हुआ, चुनाव में एक जीतता है दूसरा हारता है।’ ‘आप नहीं समझेंगे भाईजी यह रहस्य?’ ‘इसमें रहस्य की बात क्या है? आप परेशान मत होइये, अभी चंद दिनों में सारी पोलें खुल जायेंगी और असलियत सामने आ जायेगी।’ मेरे दिलासे से वे ज्यादा अधीर होकर बोले-‘भाई जी आप ठहरे भावुक आदमी, यथार्थ के कठोर धरातल की सख्ती का आपको पता नहीं है। वे जीते हैं और मेरे सीने के नाग किस तरह फुंफकार रहे हैं आपको अंदाजा नहीं है।’ मैंने कहा-‘आप राजनेता हैं, सारे सदमे बर्दाश्त करते रहे हो, अब यह भी करो, हार गये तो हार गये।’ ‘आपको लगता है कि वे सरकार बना लेंगे।’ ‘मैं भी तो आपसे यही कह रहा था कि वे सरकार नहीं बना पायेंगे, मेंढक भी तुलते देखें है आपने कभी?’ मैंने कहा-‘आप सही फरमाते हैं, लेकिन मेरी तो एक बात समझ नहीं आई कि जब से आप हारे हैं और वे जीते हैं, पूरे शहर में दंगे हो रहे हैं, यह कौनसी पालिटिक्स है?’ वे घुटे हुये थे, बोले-‘जब तक नये चुनाव नहीं हो जाते तब तक शहर में यों ही आगजनी और लूटपाट होती रहेगी।’ ‘क्या मतलब ?’ ‘मतलब साफ है, कुछ लोगों में वैचारिक मतभेद फैलाकर और कुछ में दहशत पैदा करने से हमारा वोट बैंक मजबूत होता है।’ ‘लेकिन हम तो धर्मनिरपेक्ष जो ठहरे। इस बात को तो मानते ही नहीं, सब समान हैं।’

मैंने तर्क दिया तो उन्होंने बत्तीसी निकाल कर कहा-‘यह सब बातें आपके लिये हैं, हमारे लिये सत्ता सुख से बड़ी और कोई बात नहीं है।’ ‘यह तो सोसाइटी के लिए बड़ी घातक स्थिति है।’ मैंने कहा। वे बोले-‘सोसाइटी का भला करने से कुछ नहीं मिलता भाई जी। बुरा करो तो वह सुरक्षा के लिए आसरा-तलाशती है, यह आसरा और कहीं नहीं, राजनेताओं की विशाल तोंदों के नीचे ही मिलता है।’ ‘लेकिन अब माफ कर दीजिए इन निरपराध भोले निरीह लोगों को, वे नहीं जानते, वे क्या कर रहे हैं। आप हार गये तो हार गये, कल जीत भी जायेंगे।’ मैंने कहा। नेताजी ने टोपी को दोनों हाथों से ठीक किया और बोले-‘भाई जी जब तक चुनाव दुबारा नहीं हों और मैं जीत नहीं जाऊं, तब तक मेरे पंजों की खुजली यों ही नहीं मिट जाने वाली।’ ‘आप जरा राष्ट्र की तो कद्र कीजिए।’ ‘जब राष्ट्र को मेरी परवाह नहीं तो मैं क्यों चिंता करूं?’ ‘तो अब क्या इरादा है?’ ‘मैं बिना कुर्सी के जी नहीं सकता।’ ‘तो मत जीवित रहिये।’ ‘जितने सहज रूप से आपने यह वाक्य बोल दिया, उतनी सहज स्थिति नहीं है भाई जी।’ ‘देखिये गुस्सा थूक दीजिए, हार गये तो हार गये, इतना बिगडऩे की क्या जरूरत है?’ ‘दरअसल आपको समझाये कौन? सत्ता के लिए कैसे-कैसे तालमेल हो रहे हैं। सिद्धान्तहीन रजनीति को जन्म देकर लोग सत्तारूढ़ हो रहे हैं। मैं मूल्यों की राजनीति करूं भी तो इससे क्या फर्क पडऩे वाला है।’ वे बोले। मैंने कहा-‘ऐसा करिये, थोड़े दिन इन थोथे चनों को भी देख लीजिए, व्यवस्था ज्यादा दिन चलेगी नहीं। अंत में सरकार मैं और आप दोनों मिलाकर बना लेंगे।’

पूरन सरमा

स्वतंत्र लेखक