ठेके पर जिंदगी

लगता है, आज जिंदगी ठेके पर चली गई है। लेखन से कलाकृतियों तक का सृजन ठेके पर होता है। जिंदगी से प्यार खत्म करवाने का ठेका पहले कुछ लोगों ने ले रखा था। इस पर न जाने कितनी दर्दनाक फिल्में लिखी गईं, न जाने कितनी प्रेम कहानियां बनीं, जिनके प्रेम त्रिकोण में तीसरा कोना खलनायक का होता था। ठेके पर काम करते ये लोग प्रेमी से लेकर रस्मो रिवाज और परम्पराओं की दुहाई देकर शादी तुड़वाने वाले बड़े-बूढ़ों और समाज के मीर मुंशियों का काम कर जाते। रिश्ता टूट जाता। यूं खलनायकों का ठेका व्यवसाय इतना सफल हो गया कि लोगों ने उसकी भयावहता से डर कर अपने बच्चों के नाम इन खलनायकों के नाम पर रखने बंद कर दिए। तब एक तरफ मशहूर खलनायक थे ‘प्राण साहिब’। लोगों ने तो एक दो पीढ़ी तक किसी नवजात बच्चे का नाम प्राण ही नहीं रखा। लेकिन अब जमाना बदल रहा है, साहिब। हमारे समाज के आधुनिक और व्यवसायी होते जाने के साथ-साथ यह ठेका व्यवसाय भी सफेदपोश और साफ-सुथरा हो गया है। अभी देखिए न अपने देश के किसान कानूनों से कायाकल्प के नाम पर इस देश के मूल नागरिकों धरती पुत्रों या किसानों की जिंदगी संवारने के लिए किसानों की खेती धनिक घरानों को ठेके पर देने, उनकी फसलों के खरीद ठेके लेने का अधिकार ऊंची अटारियों वालों को दे दिया गया था। वैसे तो इस देश के किसानों की शोषित बहुसंख्या इसी प्रकार सूदखोर महाजनों और धनी जमीदारों के पास ठेके पर, अर्ध बंटाई या खेत में खड़ी फसलों के औने-पौने दाम बिक कर सदियों से किसानों का दुख हरती रही है।

लेकिन यह दुख हरा गया, या एक शोषित प्रक्रिया के रूप में तबदील हो गया, यह तो केवल भुक्तभोगी ही जानते हैं। हां, पिछले साल इतना अवश्य हुआ कि इन गरीब अभागे किसानों की जमीन धनियों को ठेके पर देने की वैधानिक मान्यता मिल गयी। फसलों को सम्पन्न घरानों में गोदामों के लौह द्वारों के पीछे कैद करने की कानूनी इजाजत मिल गयी। ठेके पर जिंदगियां रख उन्हें संवारने के नाम पर बिगाडऩे के न जाने अभी कितने और ठेके खुल गए हैं। शिक्षालयों की ओर जाते हैं, तो वहां शिक्षा परमो धर्म का सूत्र वाक्य अपना चेहरा बिगाड़ ठेके पर उठ गया लगता है। महामारी का फालिज न केवल पुस्तक और अध्यापन अध्ययन संस्कृति पर गिरा, बल्कि पूरी शिक्षा व्यवस्था ही जैसे सेवानिवृत्ति झेलने लगी है। गए दिनों में गुरु द्रोण की मूर्ति सजा शिष्य एकलव्य ने शस्त्र साधना की थी। अब तो देश के जीते जागते अध्यापकों को कोई नहीं पूछता। अब तो बरसों उन्हें नाममात्र वेतन पर ठेके पर रह जिंदगी में किसी स्थायित्व को देने की मांग करते हैं, तो उन्हें कच्चे मुलाजिम कह कर अपने बजट से निकाल दिया जाता है।

शिक्षालयों के भवन आज भी खड़े हैं, लेकिन लगता है उनसे विद्या और प्रेरणा रूठती जा रही है। हर लक्ष्य तक पहुंचने के लिए चोर दरवाजे और शार्टकट खुलने लगे हैं। आजकल तप और साधना से पूर्ण शिक्षा प्राप्त करने की बात कौन करता है? विद्या के गुलाबों की खुशबू की जगह कुकुरमुत्तों ने ले ली है। हथेली पर सरसों जमाने की ठेका विधियां दनदनाने लगी हैं। युग बीत गए जब इन संस्थानों में पक्की भर्ती थी। अब तो यहां दिहाड़ीदार शिक्षा की वहंगी ढोते हैं। शिक्षालय खाली हो रहे हैं। अकादमियां ठेके पर नौकरी-वान डिग्रियों, डाक्टर, इंजीनियर या जनसम्पर्क और प्रचारक की डिजिटल संस्थानों के ठेके दिलवाने लगीं। डिग्री प्राप्त करके निकलोगे तो बाहर ठेके पर मिलने वाली नौकरी तुम्हारा इंतजार कर रही होगी, वे कहते हैं। हमें नहीं चाहिए ऐसा देश, ऐसा जीवनयापन करने की नौकरियां। हमें विदेश भिजवा दो, भैय्या। सुना है वहां नंदन कानन हैं। इन देशों की मुद्रा डालर, पाऊंड, येन और रूबल के सामने हमारा बेचारा रुपया पिट गया।

सुरेश सेठ

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