महापुरुषों की दया

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

साधारण भद्रता सूचक शिष्टाचार का ही प्रदर्शन किया, बल्कि कई लोगों के मुंह पर अवज्ञा चिन्हित विरक्ति के चिन्ह भी स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगे। इसी बीच श्री रामकृष्ण समाधि में मग्र हो गए। उन्हें देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी, इससे उपासना गृह में गड़बड़ी और कोलाहल होते देख संचालकों ने गैस की बत्तियां बुझा दीं। नरेंद्र काफी मुसीबत उठाकर मंदिर के पिछले दरवाजे से श्री रामकृष्ण को बाहर निकाल लाए और उन्हें दक्षिणेश्वर भेज दिया। नरेंद्र को श्री रामकृष्ण के प्रति ब्रह्मों के इस प्रकार के आचरण को देखकर गहरा धक्का लगा और यह जानकर कि सिर्फ उन्हीं की वजह से श्री रामकृष्ण को अपमानित होना पड़ा, क्षुब्ध और व्यथित नरेंद्र फिर कभी ब्रह्म समाज नहीं गए। नरेंद्र के मन में बचपन से ही जब कोई शंका उत्पन्न होती तो मीसांसा किए बिना उन्हें शांति प्राप्त नहीं होती थी। रात दिन विचार करने पर वो श्री रामकृष्ण के विषय में किसी प्रकार का निश्चय करने में असमर्थ हो अस्थिर हो उठे। इस अस्थिरता की वजह से वो दृढ़ता और सतर्कता से श्री रामकृष्ण के पास आना-जाना करने लगे। यहां तक कि उनकी परीक्षा के लिए दक्षिणेश्वर में रात्रिवास भी करने लगे। श्री रामकृष्ण की बात को हंसी में उड़ा देना, उनकी परीक्षा लेना आदि ब्रह्म आचरण के जरिए से नरेंद्र का जो अनमनीय व्यक्ति स्वातंत्र्य प्रकट होता था, उसे दंभ मानकर श्री रामकृष्ण के अनेक भक्त विरक्त हो जाते थे, पर जो लोग घनिष्ठता के फलस्वरूप नरेंद्र के गंभीर अतंस्तल से वाकिफ थे, वे ही जानते थे कि श्री रामकृष्ण के प्रति उनकी श्रद्धाभक्ति कितननी असीम तथा कितनी अपार थी।

जिन महापुरषों की दया का कण मात्र प्राप्त कर कई भक्त आनंद में आपे से बाहर हो जाते हैं, गंगा की उसी करुण धारा को नरेंद्र ने धीरे और स्थिर भाव से खड़े होकर सिर पर लिया था। वास्तव में स्वार्थ से परे, इस अपूर्व आध्यात्मिक प्रेम संबंध का वर्णन करना संभव नहीं है। एक दिन बात-बात में श्री रामकृष्ण एकाएक बोल उठे, तू अगर मेरी बात नहीं सुनता तो फिर यहां क्यों आता है? नरेंद्र ने उसी समय उत्तर दिया, मैं आपको चाहता हूं, इसलिए देखने आता हूं। बात सुनने के लिए नहीं। श्री रामकृष्ण गद्गद् हो उठे तथा मन की गुप्त बात प्रकट हो जाने से विशेष रूप से शर्मिंदा हुए। वो नरेंद्र के लिए जिस तरह के प्रेम का प्रदर्शन करते थे, उसे देखते हुए एक दिन मजाक उड़ाते हुए कहा था, पुराण में लिखा है, भरत राजा हरिण के बारे में सोच-सोच कर मृत्यु के बाद हरिण हुए थे। आप मेरे लिए जैसा करते हैं, उससे आपकी दशा भी वैसी ही होगी। यह सुनते ही बच्चे की तरह सरल व्यवहार से चिंतित स्वर में बोले, सच तो है रे, तो फिर क्या होगा भला? मैं तो तुझे देखे बिना नहीं रह सकता हूं?

मन में शंका उठते ही श्री रामकृष्ण मंदिर में काली मां के पास दौड़ गए, थोड़ी देर बाद हंसते हुए लौटे तो उन्होंने कहा, जा मूर्ख, मैं तेरी बात नहीं सुनूंगा। मां ने मुझसे कहा है कि तू उसे साक्षात नारायण मानता है इसलिए उससे प्रेम करता है। जिस दिन उसके भीतर नारायण को न देख सकेगा, उसी दिन उसका मुंह नहीं देखेगा। नरेंद्र एक बार फिर श्री रामकृष्ण के भक्तों के बीच में बैठे हुए थे। श्री रामकृष्ण ने प्रसंग क्रम से कहा, मेरे अपने अंदर जो है, वह शक्ति ब्रह्म है और नरेंद्र के भीतर जो है वह पुरुष है, वह मेरी सुसराल है। इन बातों को सुनकर नरेंद्र धीरे-धीरे हंस पड़े। मन ही मन सोचा फिर पागलपन शुरू हुआ। रामकृष्ण ने एक भेदी की दृष्टि से नरेंद्र को देखा। बिना पलक झपकाए वह उसे देखते ही रहे, फिर एकाएक आसन से उठकर उन्होंने अपना दाहिना चरण उसके स्कंध पर रखा। – क्रमश: