और मंत्री क्यों

हिमाचल में अब यह पूछे जाने का वक्त आ गया है कि क्या यहां सरकार के भीतर मंत्रियों की आवश्यकता रही है या नहीं। जितने तर्कों से मंत्री ढूंढे जाते हैं, क्या उतने ही औचित्यपूर्ण ढंग से ये काम भी कर पाते हैं। कम से कम पूरे प्रदेश की दृष्टि में हिमाचल के मंत्रियों को कभी भी पूर्ण नहीं माना गया, जबकि विभागीय दायित्व से भी कई मंत्री दूर या कमजोर दिखाई दिए। इसका एक कारण छोटे राज्य की राजनीति या राजनीति में असुरक्षा की भावना रही, फिर भी कुछ मंत्रियों की छवि, उनका व्यवहार तथा विभागीय समझ का बोलबाला रहा है। दरअसल हिमाचल के भीतर उभरता क्षेत्रवाद हमेशा सरकारों के मंत्रिमंडल में देखा व समझा गया। दूसरी ओर सत्ता के शिखर ने हमेशा मुख्यमंत्री के पद को ही चमत्कृत किया या ताज की परवाह ने मंत्रियों को खिलौना बना दिया। मुख्यमंत्री पद के नजदीक कभी चुनौती बने स्व. सालिग राम शर्मा को डा.वाई एस परमार ने हटा दिया था। कभी प्रेम कुमार धूमल ने किशन कपूर जैसे वरिष्ठ मंत्री को मंत्रिमंडल से चलता कर दिया, तो कभी मंत्रिमंडल की निर्धारित संख्या के कारण मेजर विजय सिंह मनकोटिया को वीरभद्र सिंह ने निकाल बाहर किया। किशन कपूर को दूसरी बार जयराम ठाकुर मंत्रिमंडल से नदारद करने की भी एक कहानी है, जिसने इस नेता का राजनीतिक परिदृश्य ही शून्य कर दिया।

जाहिर है ऐसे तमाम दृष्टांतों के बीच पर्वतीय प्रदेश में मुख्यमंत्री पद को इतना शक्तिशाली बना दिया कि सत्तारूढ़ होने के मायनों में पार्टियां एक मुट्ठी में बंद हो कर रह गईं। यहां राजनीति की पहचान नेता नहीं, ताकतवर मुख्यमंत्री बनते रहे। इसीलिए छवि के अलग-अलग मानदंडों में वाई एस परमार, वीरभद्र सिंह, शांता कुमार, प्रेम कुमार धूमल व जयराम ठाकुर भी रहे। यही सिद्धि अब वर्तमान मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू के व्यक्तित्व का मूल्यांकन कर रही है। उनकी एक साल की सत्ता का एक पहलू भले ही प्रशासनिक पकड़, विजन और बतौर शासक सामने आया है, लेकिन दूसरी ओर वह अपनी राजनीतिक म्यान में केवल अपनी ही तलवार सुरक्षित रखते हुए नजर आए। हिमाचल सरकारों में कमोबेश हर मुख्यमंत्री ने म्यान में किसी और की तलवार को जगह नहीं दी और यही शक्ति मंत्रिमंडल की सूरत मेें परिलक्षित होती रही है। यह दीगर है कि पहली बार कांग्रेस की सत्ता के फलक पर उप मुख्यमंत्री के पद पर मुकेश अग्निहोत्री नजर आए, लेकिन विभागीय आबंटन में समानांतर विभाजन नहीं हुआ। हम मान सकते हैं कि सुक्खू सरकार में मुख्यमंत्री पद का वर्चस्व यथावत है और इसे डंके की चोट पर साबित करते यह साल गुजर गया। हिमाचल में कयास लगाते भले ही सियासी पंडित (?) मिल जाएं, लेकिन यह तय है कि इस मचान को देखना या समझना नादानी ही होगी।

मंत्रिमंडल में अगर तीन रिक्तियां एक साल से झूल रही हैं, तो सूली पर कई नेताओं के अरमान यूं ही नहीं चढ़ाए। यह प्रयोग है और ताकत भी कि मंत्रिमंडल की सूची में न वरिष्ठता के पैमाने हैं और न ही राजनीतिक इतिहास की कोई सीढ़ी असरदार हो सकती है। हो सकता है लोकसभा चुनाव की दोपहरी में झुलस कर यह मुद्दा कुछ मंत्री खोज लाए, लेकिन मंत्री न भी बनाए जाएं तो क्या फर्क पड़ता है। असली अंतर तो सरकार के रुतबे में उस एहसास का रहेगा, जिसे जनता कबूल करती है। अगर अपनी लोकप्रियता के दम पर मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू लोकसभा चुनाव की परिणति में कांग्रेस के नाम अधिकांश सीटें कर देते हैं, तो साबित हो जाएगा कि फिर मतदाता से संवाद करने में एक मुख्यमंत्री कामयाब हो गया। उनके पास आत्मबल, शक्ति, शासन-प्रशासन, बजट और व्यवस्था का हर पहलू और हुनर है। सफलता का अंतिम व एकमात्र पर्याय है भी यही कि पार्टी को चुनावी दौड़ में आगे ले जाने का सफर मुख्यमंत्री की कार्यशैली तय करे। हिमाचल में सरकार का एक साल किसी भी तरह नए मंत्रियों की पैरवी नहीं कर रहा और न ही ऐसी जल्दबाजी सरकार कर रही है, लेकिन दूसरी ओर जनता के सामने विभागीय दक्षता और व्यक्तित्व की मौलिकता में मौजूदा मंत्रियों में कहीं तो निराशा उत्पन्न हुई। ऐसे में मंत्रिमंडल विस्तार से कहीं पहले यह देखा जाएगा कि क्या मंत्रिमंडल के शो केस से कुछ मूर्तियां हटाई जाती हैं। अगर ऐसा हो तो मंत्रिमंडल विस्तार कुछ और रिक्तियां भरने के लिए ज्यादा स्थान, अवसर ही नहीं, कुछ सीपीएस बने नेताओं को स्तरोन्नत करने का बहाना भी मिलेगा। कम से कम एक साल की सुक्खू सरकार में कुछ सीपीएस तथा कुछ कैबिनेट स्तर के ओहदे ज्यादा विश्वसनीय व सक्रिय होते देखे गए, तो निश्चित रूप से इनकी उपयोगिता पर शायद ही संभावित अदालती निर्णय का कोई प्रतिकूल असर दिखाई दे।