जातीय गणना को जनादेश नहीं

जातीय गणना का मुद्दा, राज्यों के चुनाव में, फ्लॉप रहा। हालांकि कांग्रेस नेता राहुल गांधी का अनुसरण करते हुए जातीय गणना का मुद्दा खूब उछाला गया। यहां तक वायदा किया गया कि 2024 में केंद्र में विपक्ष की सरकार बनी, तो राष्ट्रीय स्तर पर जातीय गणना कराई जाएगी। इस पर आरक्षित जमात के युवाओं ने भी कांग्रेस को समर्थन नहीं दिया। हालांकि विपक्ष के ‘इंडिया’ गठबंधन में जातीय गणना को ‘तुरुप के पत्ते’ के तौर पर ग्रहण किया गया था, लेकिन बिहार के अलावा किसी अन्य राज्य में जातिगत सर्वे नहीं कराए गए। कांग्रेस ने मप्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावों में इस मुद्दे पर खूब शोर मचाया था। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े समेत कई पार्टी नेताओं ने प्रधानमंत्री मोदी को ‘नकली ओबीसी’ करार दिया था, लेकिन चुनावों ने साबित कर दिया कि जनादेश महज जाति के आधार पर हासिल नहीं किए जा सकते। प्रधानमंत्री ने भी जनादेश के बाद विपक्ष पर आरोप चस्पा किया कि मतदाताओं को जातियों में बांटने की कोशिशें की गईं। उन्हें लाभ के झांसे दिए गए, लेकिन उन जातियों ने ही कांग्रेस को खारिज कर दिया, जिन्हें पार्टी का ‘परंपरागत जनाधार’ माना जाता रहा है। इनमें आदिवासी, दलित, ओबीसी और मजदूर वर्ग आदि का उल्लेख किया जा सकता है। इन समुदायों ने भाजपा के पक्ष में भर-भर कर वोट दिए। जनादेश सामने हैं। जातियों की बात होती है, तो पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह का चेहरा सामने आ जाता है। उन्होंने अपने प्रधानमंत्री-काल में मंडल आयोग की रपट लागू की थी, जिसके तहत हजारों पिछड़ी जातियों को आरक्षण मिलना तय हुआ था। यह आरक्षण आज भी जारी है। तब वीपी सिंह को ‘सामाजिक न्याय का मसीहा’ माना गया।

आज भी तमिलनाडु की द्रमुक सरकार ने वीपी सिंह की प्रतिमा स्थापित की है। मुख्यमंत्री स्टालिन ने उसका अनावरण किया था और अपने राज्य में ‘सामाजिक न्याय’ की राजनीति को आधार देने की कोशिश की है, लेकिन ‘मसीहा प्रधानमंत्री’ का 1991 के लोकसभा चुनाव में सूपड़ा ही साफ हो गया। पिछड़ों ने लालू, नीतीश और मुलायम सरीखों की तो सियासत चमका दी, लेकिन वीपी सिंह को राष्ट्रीय जन-समर्थन क्यों नहीं मिला, यह सवाल आज भी अनुत्तरित है। जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी से लेकर डॉ. मनमोहन सिंह तक कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों ने ‘जातीय सर्वे’ को महत्त्व क्यों नहीं दिया? परोक्ष रूप से खारिज ही क्यों करते रहे? क्या राहुल गांधी के दौर की कांग्रेस की सोच, ‘जातीय राजनीति’ पर, अपने पूर्वजों से भिन्न है? उन्हें चुनावी समर्थन क्यों नहीं मिला? ये भारतीय राजनीति के अहम सवाल हैं। उत्तर भारत में हिमाचल को छोड़ कर सभी प्रमुख राज्यों में अब भाजपा काबिज है। बिहार और झारखंड कुछ दूर के राज्य हैं, लेकिन वहां भी सत्ता-विरोधी लहर प्रबल है। इसका प्रत्यक्ष लाभ भाजपा को 2024 के आम चुनाव में होगा, क्योंकि वे भी 3-4 महीने ही दूर हैं। विपक्षी गठबंधन के घटक दल भी, मौजूदा जनादेश पर, कांग्रेस को लेकर ही टिप्पणियां करने लगे हैं कि कांग्रेस ‘जमीनी राजनीतिक हकीकत’ को पढ़ नहीं पा रही है। इस तरह 2024 के आम चुनाव में भाजपा को कैसे पराजित किया जा सकता है?

अलबत्ता वे खडग़े द्वारा बुलाई गई विपक्ष की बैठक में जरूर शिरकत करेंगे। हालांकि वह बैठक संसद के शीतकालीन सत्र पर विमर्श करने को बुलाई गई है। जातीय गणना के संदर्भ में यह सवाल मौजू है कि आखिर इसे क्यों कराया जाए? यदि इसे जनगणना का एक हिस्सा माना जाए, तो केंद्र सरकार ही करवा सकती है। यदि आबादी के मुताबिक हिस्सेदारी तय होनी है और बिहार की तर्ज पर आरक्षण की सीमा 75 फीसदी करनी है, तो यह सरासर ‘असंवैधानिक’ है। जिस दिन बिहार आरक्षण का मामला सर्वोच्च अदालत के सामने जाएगा, तो न्यायिक पीठ उसे खारिज कर देगी। उस आरक्षण का लाभ जिन्हें मिला होगा, वह भी खारिज कर दिया जाएगा। तो जातियों की हिस्सेदारी का क्या होगा? आरक्षण के अलावा जातीय गणना का कोई और प्रयोजन नहीं हो सकता।